________________
अनुभव होता है, 'पियो अनुभव रस प्याला' ऐसे उद्गार इस दशा में निकलते हैं। शराबी की तरह अनुभव का भी एक लोकोत्तर नशा होता है, जहां देह का भी भान नहीं रहता ।
यह अनुभव का प्याला जिसने पी लिया उसे गांजा-भंग आदि पसन्द नहीं आते । ऐसा योगी सातों धातुओं के रस को भेदकर आत्माके रस को वेदता है ।
. मैत्री से क्रोध का, प्रमोद से मान का, करुणा से माया का और माध्यस्थ से लोभ का जय होता है ।
- नाम का आलम्बन प्रथम माता देती है। __ मूर्ति का आलम्बन दूसरी माता देती है ।
आगम का आलम्बन तीसरी माता देती है । केवलज्ञान का आलम्बन चौथी माता देती है ।
गणधरों के 'भयवं किं तत्तं ?' प्रश्न के उत्तर में भगवान ने क्रमशः 'उप्पन्नेइ वा विगएइ वा धुवेइ वा' उत्तर दिया । इस त्रिपदी में से द्वादशांगी का जन्म हुआ । निर्विकल्प समाधि के बिना ऐसा उत्कृष्ट निर्माण नहीं हो सकता । शब्दातीत अवस्था में जाने के बाद समस्त शब्द आपके दास बनकर चरण चूमते हैं । आपको शब्द ढूंढने नहीं पड़ते, शब्द आपको ढूंढते हुए आते हैं, और रचना अनायास ही हो जाती है ।
. आत्मप्रदेश का आनन्द अलग होता है, अव्याबाध सुख का आनन्द अलग होता है ।
जिस प्रकार कोई उदार व्यक्ति भिन्न-भिन्न मिठाइयों से भक्ति करता है, उस प्रकार चेतना चेतन की भक्ति करती है। अनादिकाल से चेतन ने कभी चेतना के सामने भी देखा नहीं है । अब चेतना ने निश्चय किया है कि ऐसी भक्ति करूं कि चेतन कभी बाहर जाये ही नहीं ।
चेतना पतिव्रता नारी है जो स्वामी को कभी छोड़ती नहीं । हम इतने नफ्फट है कि कभी उसके सामने देखा नहीं ।
सहभाविनो गुणाः क्रमभाविनः पर्यायाः . गुण सदा साथ ही रहते हैं । वे कभी हमारा संग नहीं छोड़ते ।
कहे कलापूर्णसूरि-१******************************३६३]