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हो सूर्य दूरे पण आरिसामां, आवी अने शुं घर ना प्रकाशे ?
'प्रभु ! आप मोक्ष में गये हैं, फिर भी गुणों के आरोप से मेरे विशुद्ध चित्त में साक्षात् निवास कर रहे हैं । दूरस्थ सूर्य भी दर्पण में संक्रान्त होकर क्या घर उज्ज्वल नहीं करता ?'
यह कुमारपाल की प्रार्थना है ।। इतना सामने होने पर भी भगवान हमें क्यों दूर लगते हैं ?
. गुप्त से गुप्त बात, व्यापार का रहस्य, व्यापारी चाहे अन्य किसी को न दे परन्तु अपने विनीत पुत्र को तो अवश्य देगा ही। हम प्रभु के विनीत पुत्र हो जायें तो ? हम उनके आज्ञापालक हो जायें तो ? भगवान के खजाने के स्वामी नहीं बन सकते ?
'अध्यातम रवि उग्यो मुझ घट,
मोह-तिमिर हर्यु जुगते; विमलविजय वाचकनो सेवक,
राम कहे शुभ भगते ।' भगवान सूर्य बनकर हृदय-मन्दिर में पदार्पण करते है, तब ऐसे उद्गार निकल सकते है। कर्म-विवर ही खिड़की है, वहीं होकर परम का उजाला हमारे हृदय में आ सकता है ।
कठोरता हो तब तक चित्त विशुद्ध नहीं बनता । जिस दिन कठोरता-क्रूरता की हो उस दिन ध्यान नहीं लगता । आप अनुभव करके देखें, अनुभवी महानुभावों को पूछ लेना।
इसीलिए ध्यान-माता से पूर्व धर्ममाता बताई है ।
अष्टप्रवचन माता के द्वारा समस्त जीवों के प्रति करुणाभाव जगता है, आत्म-तुल्य भाव जगता है, उसके बाद ही चौथी ध्यानमाता के लिए योग्यता प्रकट होती है ।
आत्मतुल्य भाव की अपेक्षा भी आत्म्यैक्य-भाव बढ कर है। भगवान समस्त जीवों को आत्म-तुल्य भाव से ही नहीं देखते, वे समस्त जीवों के साथ स्वयं को एक रूप से देखते है ।
• परमात्मा के साथ अभेद कब हो सकता है ?
शरीर के साथ भेद साध लेते हैं तब ही समस्त जीवों के साथ एवं प्रभु के साथ अभेद-भाव साध सकते है ।
ऐसा अभेद आते ही अमृत-कुण्ड में स्नान करते हों वैसा
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कहे