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________________ वाण (गुजरात) उपाश्रय में पूज्यश्री, वि.सं. २०४७ ५-१०-१९९९, मंगळवार आ. व. ११ (प्रातः) . समय, शक्ति या सम्पत्ति पूर्व पुन्य के प्रताप से मिले हैं तो अब वे शक्तियां दूसरों के उपयोग में आनी चाहिये, तो वे अक्षय बनेंगी अन्यथा समाप्त हो जायेंगी । . द्रव्य से शुद्धि गुणों से एकता पर्याय से भिन्नता पंन्यासजी महाराज के साथ इस सम्बन्ध में जब वे हमें मिले नहीं थे, तब से पत्र-व्यवहार से स्पष्टीकरण किया था । सिद्ध भगवान के सुख के सामने किसी भी पदार्थ की तुलना नहीं हो सकती । जहां एक सिद्ध है, वहां अनन्त सिद्ध हैं । अरे, इस स्थान पर भी जहां हम बैठे हुए हैं, वहां भी अनन्त सिद्ध बैठे हुए हैं । भक्त की भाषा अलग होती है । संसार की भाषा अलग होती है । हमारे आसपास निगोद के अनन्त जीव रहे हुए हैं कि नहीं ? वे सभी सत्ता से सिद्ध हैं कि नहीं ? ३४८ ****************************** कहे
SR No.032617
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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