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________________ मेरे पास कोई सामग्री नहीं थी। ‘नमस्कार स्वाध्याय' साहित्य विकास मण्डल की ओर प्रकाशित पुस्तक मेरे समक्ष पड़ा था । ऐसी आदत रही है कि कोई भी कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व बारह नवकार गिनना । बारह नवकार गिनकर उस पुस्तक को खोलने से पहले भगवान को प्रार्थना की कि, 'प्रभु ! मुझे जो लिखना है वह मुझे दिलाना ।' पुस्तक खोलते ही मुझे जो चाहिये था वही मिल गया । चार वस्तुएं मिल गई । मेरा हृदय नाच उठा और उनके आधार पर मैने 'ध्यान-विचार' लिखना शुरू किया । . जब तक हमें अपनी न्यूनता नहीं लगेगी, तब तक प्रभु के पास मांगने की इच्छा नहीं होगी । जब तक मांगेंगे नहीं, तब तक मिलेगा नहीं । जिसे अपनी न्यूनता दिखेगी, वही अहंकार से रहित हो सकता है । अहंकार रहित बनने वाला ही अहँ से पूर्ण बनता है । प्रभु के पास मांगे, तो मिलेगा ही मिलेगा, परन्तु यदि मांगे ही नहीं तो ? प्रश्न : प्रभु तो माता है, माता तो बिना मांगे भी परोसती है, तो प्रभु क्यों नहीं देते ? उत्तर : माता बिना मांगे बालक को देती है, यह बराबर है, परन्तु वह बालक की उम्र के अनुसार देती है । स्तन-पान करने वाले बालक को माता कोई दूधपाक नहीं देगी । छोटे बच्चे को माता कोई लड्डु नहीं देगी । यदि देगी तो बालक को हानि ही होगी। प्रभु हमें अपनी योग्यतानुसार दे ही रहे हैं। ज्यों-ज्यों योग्यता बढती रहेगी, त्यों त्यों प्रभु से हमें अधिकाधिक प्राप्त होता ही रहेगा । तो फिर मांगने की क्या आवश्यकता है ? योग्यता ही बढाते रहना चाहिये न ? आप ऐसा प्रश्न पूछ सकते हैं, परन्तु मेरी बात अच्छी तरह सुन लो । प्रभु के पास दीन-हीन बन कर याचना करने से ही योग्यता की वृद्धि होती है। योग्यता बढाने का सब से अच्छा तरीका यह है - कि दीन, हीन, अनाथ एवं निराधार बन कर प्रभु के समक्ष याचना करें । अहंकार से अक्कड़ बन कर नहीं, परन्तु नमस्कार से नम्र बन कर पभु के पास याचना करनी है । नम्र ही गुणों से परिपूर्ण बनता है, अक्कड़ नहीं । सरोवर ही जल से * कहे कलापूर्णसूरि - 30 [३१६ ****************************** कहे'
SR No.032617
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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