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प्रतीत हो तो समझें कि मैं भारीकर्मी हूं।
. 'मा रुष, मा तुष' ये दो वाक्य भी जिन्हें नहीं आते थे, वे मुनि केवलज्ञानी कैसे बन गये ? वे जानते थे कि मुझे भले ही नहीं आता, परन्तु मेरे गुरु को तो आता है न ? मेरे गुरु का ज्ञान, मेरा ही ज्ञान है । ऐसे सम्पूर्ण समर्पण से ही उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया था ।
पुत्र पिता की सम्पत्ति का उत्तराधिकारी बनता है ।
तो शिष्य गुरु की संपत्ति का उत्तराधिकारी क्यों न बने ? तो भक्त भगवान की सम्पत्ति का उत्तराधिकारी क्यों न बने ?
भक्त अर्थात् भावि भगवान ।
भगवान ने अपना अन्तरंग ऐश्वर्य भक्त के लिए ही अनामत रखा है।
'कहे कलापूर्णसूरि' तथा 'का कलापूर्णसूरिए' बंने पुस्तको मळेल छे. पूज्यपाद आचार्य भगवंत विजय कलापूर्णसूरीश्वरजी महाराज साहेबना साधना-जिनभक्ति रसपूर जीवनथी नीतरती साधक वाणी उपलब्ध कराववा बदल धन्यवाद... आनंद... अनुमोदना...
आ शुभ प्रयासो चालु राखवा विनंती...
श्रुतभक्तिमां सुंदर उद्यम करी स्वाध्याय-शील रहो छो ते बदल अभिनंदन...
- आचार्य कलाप्रभसागरसूरि
हैद्राबाद.
(कहे कलापूर्णसूरि - १ ****************************** ३११)
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