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योग्यतानुसार सुन्दर धर्ममय वातावरण जमाया है ।
. जितनी सावधानी आप अपनी आत्मा की रखते हैं, उतनी ही सावधानी आप अन्य व्यक्तियों की करें, क्योंकि 'अन्य' अन्य नहीं है, हमारा ही अंश है । अन्य की हिंसा में हमारी हिंसा ही छिपी है, यह आपको समझना पड़ेगा । जब हम अन्य की हिंसा करते हैं तब हम अपनी ही दस गुनी हिंसा निश्चित कर डालते हैं । _ 'होय विपाके दस गणुं रे, एक वार कियुं कर्म'
. मोह की प्रबलता जितनी अधिक हो उतनी अन्य समस्त अशुभ प्रकृतियों को जोरदार समझें । अन्य प्रकृतियां कम अशुभ हों तो अधिक अशुभ बनती हैं, अधिक घट्ट बनती है ।
अरिहंत आदि की अशातना से मोहनीय कर्म बंधते हैं । मोहनीय का पाप हिंसा से भी अधिक होता है। आज्ञा-भंग का पाप सर्वाधिक होता है । मोह का कार्य आज्ञा-भंग कराने का है । मिथ्यात्व के बिना आज्ञा-भंग हो ही नहीं सकता ।
सम्यक्त्व होने के बाद जगत् के समस्त जीव शिव स्वरूप प्रतीत होते हैं । जिसे स्वयं में शिवत्व दिखाई दिया, उसे सर्वत्र शिव दिखेंगे । यही सम्यगदृष्टि है ।
सृष्टि कभी बदलती नहीं है, दृष्टि बदलती है । दृष्टि पूर्ण होने पर जगत् पूर्ण दिखता है । दृष्टि सम्यग् बनने पर जगत् सम्यग् प्रतीत होता है ।
काला चश्मा पहनो तो जगत् काला है, पीला चश्मा पहनो तो जगत् पीला है। इसे केवल उपमा न समझें । यह वास्तविकता है। जब अशुभ परिणाम करते हैं तब कृष्ण लेश्या होती है । कृष्णलेश्या काले पुद्गलों को आकर्षित करती है । तेजोलेश्या पीले पुद्गलों को खींचती है । ज्यों ज्यों अध्यवसाय निर्मल बनते जाते हैं, त्यों त्यों स्वच्छतम पुद्गलों को हम खींचते रहते हैं।
प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने कृष्णलेश्या के द्वारा सातवीं नरक में ले जाने वाले अत्यन्त ही अशुभ कर्म बांधे, किन्तु वे कर्म स्पृष्ट थे । वे शुभ ध्यान की धारा से तुरन्त ही धुल गये और उन्हें अल्प समय में केवलज्ञान हो गया ।
कहे कलापूर्णसूरि - १
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कहे