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- इस समय नहीं हैं माता-पिता, नहीं हैं गुरु । इस समय हम तो भगवान के आधार पर जीते हैं । यदि भगवान छोड़ दें तो हमारे पास रहा क्या ? भगवान ही गुरु हैं, माता हैं, पिता हैं, सब कुछ हैं । सब कुछ भगवान हैं।
___ 'अन्यथा शरणं नास्ति' का भाव उत्पन्न हो तो जिस प्रकार निराधार बालक की ओर मां दौड़ती हुई आये, उस प्रकार भगवान दौड़ते हुए आयेंगे।
'अभिनंदन जिन दरिसण तरसीये' - यह स्तवन पढ कर देखें । आनन्दघनजी प्रत्येक फिरके में मान्य हैं। उनकी स्तवना तो देखो । उनकी विरह की व्यथा तो देखो । ये स्तवन नहीं है, परन्तु प्रभु की ओर उठती हृदय-सागर की तरंगें हैं । इनमें प्रथम गुणस्थानक से लगा कर चौदहवे गुण-स्थानक तक का सम्पूर्ण आध्यात्मिक विकास क्रम है ।
१. प्रथम स्तवन में प्रभु-प्रेम ।। २. दूसरे स्तवन में मार्ग की खोज । ३. तीसरे स्तवन में मित्रा-दृष्टि, प्रथम भूमिका ।
अभय, अद्वेष, अखेद की बात । इसके लिए योगदृष्टि समुच्चय पढ कर देखें । मित्रादृष्टि का दूसरा नाम अभय है ।
. 'करण' का अर्थ समाधि होता है। यदि समाधि समझेंगे तो ही अपूर्व-करण आदि समझ में आयेंगे । यथाप्रवृत्तिकरण ही अपूर्वकरण तक पहुंचाता है । यथाप्रवृत्तिकरण असंख्य बार आता है, परन्तु उत्तरोत्तर विशुद्धि बढती ही जाती है, जिस प्रकार 'नूतन विद्यार्थी का एक का अंक उत्तरोत्तर सुधरता जाता है।
यथाप्रवृत्तिकरण भी अव्यक्त समाधि है । इस अव्यक्त समाधि के प्रभाव से ही अभव्य जीव दीक्षा ग्रहण करके नववे ग्रैवेयक तक जा सकते हैं । अभव्य में योग्यता न होने से वे बाद में पतन पाते हैं । इसीलिए हरिभद्रसूरिजी ने अपुनर्बंधक शब्द खोजा है । अपुनर्बंधक अर्थात् ऐसा जीव जो पुनः कभी ७० कोटाकोटि सागरोपम मोहनीय की स्थिति नहीं बांधता । अभव्य अपुनर्बंधक नहीं बन सकता ।
- मुझे भक्ति-जाप-ध्यान आदि पसन्द हैं, इसलिए मैं
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