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होता है तब उद्वेग एवं आकुलता बढ जाती है । ऐसा हो तब आप प्रभु-नाम का आश्रय लें ।
प्रभु-नाम की महिमा प्रस्थापित करने के लिए ही दूसरा आवश्यक (चतुर्विशति स्तव) है ।
नाम-नामी का अभेद है । इसीलिए तो हम अपने नाम की प्रशंसा से प्रसन्न होते हैं, निन्दा से व्याकुल होते हैं ।
स्व-नाम के साथ हमने इतना तादात्म्य कर लिया है। उससे मुक्त होने के लिए प्रभु-नाम-जाप आवश्यक है ।
कोई किसी का नाम लेता है कि तुरन्त उस व्यक्ति की आकृति हमारे मानस में झलकने लगती है । नाम के साथ आकार अनिवार्य रूप से जुड़ा है । इसीलिए नाम के बाद स्थापना-निक्षेप हैं ।
पू. कनकसूरिजी, का नाम बोलते ही उनकी आकृति याद आती है। केवल आकृति ही नहीं, गुण भी याद आते हैं । निःस्पृहता, वात्सल्य, विधि-प्रेम, करुणा आदि गुण याद आते हैं । यहां भी प्रभु का नाम + स्थापना के द्वारा प्रभु के गुण याद आते हैं ।
योग का प्रारम्भ प्रभु-नाम से हुआ, यह प्रीतियोग हुआ । प्रेम के प्रगाढ बनने पर भक्ति-योग आता है । भक्तियोग के प्रगाढ बनने पर वचनयोग आता है । वचनयोग के प्रगाढ बनने पर असंग योग आता है ।
. चार महात्माओं के महानिशीथ के जोग चलते हैं । इस वर्ष ही प्रारम्भ से अन्त तक पुनः महानिशीथ पढा । प्रभु-नाम (नवकार) प्रभु के गुणों आदि का वर्णन पढने पर रोमांच होता है, हर्ष उत्पन्न होता है । अतः सर्व प्रथम नवकार दिया जाता है । नवकार अर्थात् अक्षरमय पंच परमेष्ठी । भौतिक देह भले न हो, अक्षर-देह है ही, अक्षर अर्थात् जो कदापि क्षरें नहीं, खरे नहीं ।
नवकार अर्थात् प्रभु-नाम !... नवकार अर्थात् गुरु-नाम !! नवकार अर्थात् गुणियों के गुणों का कीर्तन !!!
मैं पचास वर्षों से प्रगाढ रूप से प्रभु-भक्ति करता हूं। भयंकर अस्वस्थता (बीमारी) में भी भक्ति चालु रहती है। कमरे से बाहर भी निकल नहीं सकू तो भी भक्ति चालु रहेगी। कहे कलापूर्णसूरि - १ ****
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