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फलोदी में वि.सं. १९८० वै.सु. २ की शाम को ५.१५ बजे मेरा जन्म हुआ ।
तीन वर्ष का था तब किसीके साथ जाने पर मैं गुम हो गया । बहुत खोजबीन करने पर मैं घर के पिछले भाग में से मिला ।
मेरे पिताजी आदि तीन भाई थे : पाबुदानजी, अमरचंदजी और लालचंदजी । पाबुदानजी मेरे पिताजी । वे स्वभाव के भद्रिक व सरल प्रकृतिवाले थे । अमरचंदजी बहुत कड़क थे । लालचंदजी पक्के जुआरी थे । इतने जुआरी कि घर के दरवाजे भी कभी बेच दे । मैं छोटा था तब एक वक्त आंगन में खटिये पर सोया हुआ था, उस वक्त लालचंदजी मेरे दाहिने कान की बुट्टी खींच कर ले गये। कान तोड़ कर बुट्टी ले गये उसका चिह्न आज भी दाहिने कान पर विद्यमान है, जो आप देख सकते है । (पूज्यश्री की तस्वीरों में वह चिह्न आप भी देख सकते हैं ।)
बड़े परिवार के कुटुंब में भिन्न-भिन्न प्रकृतिवाले लोग होते
अमरचंदजी व्यवसायार्थ मद्रास गये थे, जब कि मेरे पिताजी पाबुदानजी हैद्राबाद गये थे ।
मेरे दादीजी का नाम शेरबाई था । नाम वैसे ही गुण । शेर जैसी ही उनकी गर्जना ! चोर भी उनसे कांपते । पास में कोई बीमार हो तो इलाज करने के लिए सदा सज्ज ! घरेलु औषधिओं की जानकारी भी अच्छी। __ मेरी मां खमाबेन, गोलेछा परिवार के बागमलजी की पुत्री थीं । मेरी मां प्रकृति से बहुत ही भद्रिक व अत्यंत ही सरल थीं । मुक्तिचन्द्रविजय के मातुश्री भमीबेन जैसी ही थीं। आकृति और प्रकृति से बराबर मिलती-जुलती । जब भी मैं भमीबेन को देखू तब अवश्य मुझे मेरी मां याद आती है । और मेरे मामा माणेकलालजी आगर (नागेश्वर तीर्थ के पास का गांव)