________________
सिद्ध में गये हैं वे नीचे नहीं आते यह बात भी सत्य है और यशोविजयजी महाराज की बात भी सत्य है।
भक्त की भाषा लोक से तो अलग होती है, परन्तु शास्त्रों से भी अलग होती है, फिर भी शास्त्र-विरुद्ध नहीं कही जायेगी। शास्त्र से अतिक्रान्त अनुभव सामर्थ्य योग है ।
भक्त को वीतराग परमात्मा मिले बिना नहीं रहेंगे, यह बात भी सत्य है ।
यदा ध्यायति यद् योगी, याति तन्मयतां तदा । ध्यातव्यो वीतरागस्तद्, नित्यमात्मविशुद्धये ॥
- योगसार हमारा चारों ओर भटकता उपयोग जब प्रभु-नाम-मूर्ति आदि में जाये तब वह उस आकार में बन जाता है ।
हमारा उपयोग जिसका ध्यान करेगा उस आकार को पकड़ लेगा ।
. प्रतिमा का निषेध करके आप मुक्ति का मार्ग हार गये । भगवान ने कोई अपनी पूजा के लिए मूर्ति-नाम आदि का नहीं कहा । यह सब बताने के लिए यशोविजयजी ने 'प्रतिमा-शतक' की रचना की है।
नाम आदि चार का चिन्तन करने से चेतना प्रभुमय बन जाती है । दूर की वस्तु भी उस समय साक्षात् सामने दिखती है, सिर्फ एकाकारता होनी चाहिये ।
तुमही नजीक, नजीक सब ही है ।
तुम न्यारे तब सब ही न्यारे । यशोविजयजी महाराज किस अपेक्षा से ऐसा कहते हैं ?
भगवान दूर है तो दूर, निकट है तो निकट है, परन्तु दूरनिकट कैसे बनते है ?
चेतना प्रभु में एकाकार बनती है, तब प्रभु निकट हैं और चेतना प्रभु में एकाकार नहीं बने तब प्रभु दूर है, यही बात है।
पांचसौ-हजार वर्ष के बाद भी कोई भक्त-हृदयी उत्पन्न हो तब ये समस्त वाक्य उपयोग में आयें, इस कारण रचे गये हैं ।
'वीतराग है' यों कह कर आप किसी भोले व्यक्ति को भले ही
२६२****************************** कहे