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दिया । सिद्ध तो समस्त संसारियों को भी सत्-चित् + आनन्द से पूर्ण देखते हैं ।
. मंत्र, विद्या, सिद्धि आदि अनेक दृष्टि से लोगस्स सत्र महत्त्वपूर्ण है । कायोत्सर्ग में भी उसका प्रयोग किया जाता हैं । कायोत्सर्ग में वह ध्यानात्मक बनने पर उसके बल की वृद्धि होती है । कोई भी वस्तु सूक्ष्म बनने पर उसका बल बढ़ जाता है । इसमें बोधि, समाधि प्राप्त करने की कला है । अन्य समस्त मंत्रयंत्र आदि से यह बढ जाता है। इस सूत्र से हमारा चित्त प्रसन्न होता है, जो प्रसन्नता संसार में सबसे दुर्लभ है, करोडों डोलर व्यय करने पर भी प्राप्त नहीं होती, यहां बिना पैसे लोगस्स आपको चित्त की प्रसन्नता देने के लिए सज्ज है। क्योंकि लोगस्स में तीर्थंकरो का भावपूर्वक का कीर्तन है ।
एवं मए अभिथुआ = सामने विद्यमान की स्तुति । भगवन् ! आप मेरे समक्ष विद्यमान हैं । मैंने आपकी स्तुति की है ।
आप यदि इस लोगस्स को जीवन में उतारना चाहो तो मैं कहूं, अन्यथा मौन रहूं ।
आपके समक्ष तो केवल फोन का भुंगला है, फिर भी आप व्यक्ति के साथ बात करते हैं । लोगस्स, नवकार, मूर्ति आदि भी भुंगले हैं, जो हमें प्रभु के साथ जोड़ देते हैं । एक में यंत्र-शक्ति है, दूसरे में मंत्र-शक्ति है ।
प्रतिमा, नवकार आदि अरिहंत है। अरिहंत के साथ जोडने वाले हैं, ऐसा अभी तक चित्त में लगा नहीं । इसी कारण मन प्रभु में चिपकता नहीं है ।।
लोगस्स आदि हमेश के हो गये, ऐसा आपको लगता है, तो दुकान, पत्नी आदि भी क्या हमेश के नहीं हैं ? वहां स्वार्थ है तो क्या यहां स्वार्थ नहीं है ? सच्चा 'स्वार्थ' ही यहां है । स्वार्थ का अर्थ समझें । स्व अर्थात् आत्मा, अर्थ अर्थात् प्रयोजन ।
. 'तित्थयरा मे पसीयंतु' भगवन् ! मुझ पर प्रसन्न हों । 'प्रसीद भगवन् मयि ।' भगवान कभी अप्रसन्न होते हैं ? भगवान अप्रसन्न नहीं हैं, परन्तु हम प्रसन्न हो जायें तो भगवान प्रसन्न हुए माने जाते हैं ।
कहे
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