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की रुचि बढेगी । आगम रूपी सागर में प्रवेश करने की ये तो नाव हैं । नाव भला सागर की विरोधी कैसे हो सकेगी ?
* एक साधु ही जगत् में ऐसे है जो स्वयं दुर्गति से बचकर अनेक अन्य व्यक्तियों को भी बचाते है । जिस प्रकार तैराक तैरता है और तैराता है ।
चारित्रविजय कच्छी ने जब पालीताना में बाढ आई तब एकसौ मनुष्यों को बचाये, उस प्रकार साधु जीवों को बचाते हैं ।
- पतंजलि ने लिखा - 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ।' यशोविजयजी ने लिखा - 'संक्लिष्टचित्तवृत्तिनिरोधः ।'
यह व्याख्या जैन दर्शन की हो गई । अशुभ विचारों का ही निरोध करना योग है । शुभ का निरोध नहीं करना है।
पातंजल योग-दर्शन की उपाध्याय महाराज की टीका का भी पं. सुखलालजी ने भाषान्तर किया है
- देह के तीन दोष : वात, पित्त, कफ । आत्मा के तीन दोष : मोह, द्वेष, राग ।।
शरणागति, दुष्कृतगर्हा और सुकृत अनुमोदना, मोह आदि तीनों दोषों को क्रमशः नष्ट करते हैं ।
. हम करते सब कुछ हैं । शायद विधिपूर्वक भी करते हैं, परन्तु उपयोग नहीं होता । यह उपयोग लाने के लिए ही मेरा इतना परिश्रम है ।
पांच प्रकार के अनुष्ठान विष, गरल, अननुष्ठान, तद्धेतु और अमृत हैं, जिनमें में से तीन वर्जित हैं ।
उपयोग तीव्र बने , एकाकार बने, तो ही तद्धेतु अनुष्ठान बन सकता है। हमारा अनुष्ठान अमृत नहीं तो तद्हेतु अनुष्ठान तो बनना ही चाहिये ।
- विज्ञान अणुबम आदि से मारना सिखाता है, जबकि धर्म एवं धर्माचार्य जीना और जिलाना सिखाता है ।
आज का जमाना विचित्र है। मनुष्य स्वयं जीना नहीं चाहता और न अन्य को जिलाना चाहता है ।
दूसरों को मारने के प्रयोग हमारी ही मृत्यु को निमंत्रण देते हैं, इस भव में भी । कहे कलापूर्णसूरि - १ **********
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