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पड़िलेहन, काजा निकालना आदि साधु के आचार, अहिंसा को परिपुष्ट करने वाले हैं । पड़िलेहन करते समय, काजा निकालते समय आप ऐसी भावना भायें 'ओह ! मेरे प्रभु ने कैसा उत्तम धर्म बताया है ? कैसी करुणा झलकती है प्रत्येक अनुष्ठान में ? यहां कोई क्रिया छोटी नहीं है । काजा निकालने की क्रिया से भी केवलज्ञान होता है ।
✿ इर्यासमित साधु को देखकर इन्द्र ने प्रशंसा की । अश्रद्धालु देव ने परीक्षार्थ मार्ग में चींटियां और सामने से दौड़ता हुआ पागल हाथी तैयार किया । साधु मरने के लिए तत्पर हो गये पर वे चींटियों पर नहीं चले । हाथी ने उन्हें उठा कर जहां अधिक चींटियां थी उस भूमि पर फैंका । उस समय भी खुद को चोट लगने की चिन्ता न करके चींटियों के प्रति करुणामय विचार करते साधु को देख कर देव नत मस्तक हो गया और उसने क्षमा याचना की । पड़िलेहन के छः दोष :
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आरभडा : उल्टा करना अथवा शीघ्रता से करना । संमर्दा : मसलना, उपधि पर बैठना, किनारे मुड़े हुए होना ।
अस्थान स्थापना : अस्थान पर रखना । प्रस्फोटना : झटकना ।
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विक्षिप्ता : प्रतिलेखित वस्त्र को फैंकना । वेदिका : पांच प्रकार से अविधिपूर्वक बैठना । ये छ: पड़िलेहन के दोष हैं ।
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भक्ति
मुनिचन्द्रविजय : कई विद्वान मानते है कि जैन दर्शन में भक्ति के लिए कोई जगह नहीं है, वह तो सिर्फ पुरुषार्थ का मार्ग है । और भक्ति को ही आप मुख्य बता रहे है । जैन दर्शन में कोई भक्ति-शास्त्र है ? या जैन शैली के अनुरूप भक्ति - शास्त्र की रचना की जा सकती है क्या ?
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पूज्य श्री : जग चिन्तामणि, वीतराग स्तोत्र, लोगस्स, नमुत्थुणं, ललितविस्तरा, शक्रस्तव, चैत्यवन्दन भाष्य (२४ द्वार, २०७४ प्रकार)
(कहे कलापूर्णसूरि १ ******:
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