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है । आप इन्द्रियों के सुख में मूढ बन कर पड़े रहो, यह मोह को अत्यन्त प्रिय लगता है, क्योंकि यदि आपकी मूढता चली जाये तो मोह की पकड़ छूट जाये और आप अनन्त की ओर झांक सको ।
मोह की अधीनता से कर्म बंधते हैं । भगवान की अधीनता से कर्म टते हैं । प्रभु ही मोह-जाल में से हमें मुक्त कर सकते हैं । पुद्गल के प्रेम से मुक्त होने के लिए प्रभु का प्रेम चाहिये ।
प्रेम आत्मा का स्वभाव है, उसे छोड़ा नहीं जा सकता है । परन्तु उसका रूपान्तर किया जा सकता है । पुद्गल का प्रेम प्रभु में जोड़ा जा सकता है ।
शब्द आदि पुद्गल के गुण हैं । ज्ञान आदि आत्मा के गुण हैं । हमें कौनसे गुण प्रिय हैं ? जो गुण प्रिय लगेंगे वे मिलेंगे ।
. प्रभु का शरणागत निर्भय होता है । यदि भय हो तो समझें कि अभी तक प्रभु का सम्पूर्ण शरण स्वीकार नहीं किया ।
* प्रभु के गुण एवं प्रभु, प्रभु का नाम एवं प्रभु, प्रभु की मूर्ति एवं प्रभु एक ही हैं ।
- नदी की बाढ जब तट को तोड़ कर बहने लगती है तब कुंए, तालाब, नदियां आदि जल से छलछला उठते हैं । उस समय वहां कोई भेद नहीं रहता । प्रभु के साथ एकता हो जाती है, ध्याता, ध्येय और ध्यान की एकता हो जाती है तब सब एक हो जाता है ।
में किसी भी पदार्थ के प्रति आसक्ति न हो, ऐसा जीवन कब बनता है ? जब प्रभु के प्रति प्रेम जगता है, जब प्रभु के साथ एकात्मता हो जाती है।
१९० ****************************** कहे