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यदि हमारे पास इन्द्रियों को, देह को नियन्त्रण में रखने की शक्ति नहीं है तो समर्थ की शरण में, भगवान की शरण में जाना चाहिये ।
__यदि संयम का सम्यक प्रकार से पालन करना हो तो भक्ति के बिना उद्धार ही नहीं है, मैत्री के बिना उद्धार नहीं है । मैत्री के द्वारा जीवों के साथ सम्बन्ध और भक्ति के द्वारा भगवान के साथ सम्बन्ध सुधरेगा । इसके बिना चारित्र की शुद्धि नहीं है, प्राप्ति नहीं है, यह लिख रखना ।
संयम भले ही मिल गया, परन्तु सुरक्षा के लिए भक्तियोग एवं ज्ञान-योग की आवश्यकता होगी ही । अतः मैं कितने ही दिनों से 'भक्ति भगवति धार्या' पर अटक गया हूं ।
परमात्मा के द्वारा भुलाये गये आत्मा को खोज निकालना है। न मिले तब तक परमात्मा को छोड़ना नहीं है । 'कब्जे आव्या ते नवि छोडं' आदि पंक्तियों के द्वारा महापुरुष हमें सिखाते हैं कि प्रभु को कभी मत छोड़ना । मैं भी आपको यही सिखाता हूं कि प्रभु को मत छोड़ना । भगवान के पास हठ लेकर बैठ जाओ - प्रभु ! मैं आपको कभी नहीं छोडूंगा ।
. किसी चन्दे में अधिक से अधिक कितना देंगे ? और पुत्र को कितना देंगे ? पुत्र को सब दे देंगे ।
भगवान हमारे परम पिता हैं । उन्होंने अपना समस्त श्रुतखजाना गणधरों को दिया । स्वयं देशना देकर फिर किसको देशना देने की आज्ञा देते हैं ? गणधर को देशना देने की आज्ञा देते हैं । शिष्य पुत्र ही हैं ।
ज्ञान (समझ) बढने के साथ भगवान के प्रति प्रेम बढता ही है । तो ही कह सकते हैं कि समझ बढी है । समझ बढने पर यशोविजयजी को प्रभु में ही सर्वस्व दिखने लगा । अन्त में कह दिया, 'ज्ञान के सागर का मन्थन करते-करते मुझे भक्ति का अमृत मिला है, यही सार है।'
समझ की यही कसौटी है।
भाव तीर्थंकर के प्रति प्रेम कब प्रकट होगा ? जब नाम, मूर्ति पर प्रेम होगा तब । इस समय भगवान ने हमारी परीक्षा की
*** कहे कलापूर्णसूरि - १)
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