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उसे पहचानने में चौदह - पूर्वी भी धोखा खा गये हैं ।
प्रमाद एव मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपुः ।
शत्रु होने पर भी प्रमाद इतना मधुर लगता है कि गुरु भी उसके समक्ष कड़वे लगते हैं । जब गुरु के वचन कड़वे लगें तब समझ लें कि अब अहित अत्यन्त ही निकट है ।
अध्यात्मसार : भक्ति प्रेम करने का स्वभाव मनुष्य का ही नहीं, जीव मात्र का होता है। अविवेकी जीव शरीर पर तथा शरीरधारी जीव पर प्रेम कर बैठता है । यह पुद्गल का प्रेम है । प्रेम तो आत्मा पर, आत्मा के गुणों पर करने योग्य है ।
राजुल को सखियों ने कहा, 'हमने तो प्रथम से ही कहा था कि ये श्यामवर्ण हैं । श्यामवर्ण वाले खतरनाक होते हैं । इस बात का अब विश्वास हो गया न ? चलो, अभी तक कुछ नहीं बिगड़ा । किसी अन्य के साथ विवाह हो सकेगा ।
यह सुनते ही राजुल ने सखियों को चुप कर दिया - 'मैं उन वीतरागी के साथ ही राग करूंगी ।'
रागी का राग, राग बढाता है । वीतराग का राग, राग घटाता है। राग आग है। विराग बाग है। राग जलाता है, विराग उज्ज्वल करता है। राजुल ने विराग का मार्ग अपनाया ।
_आप यदि प्रभु के साथ प्रगाढ प्रेम बांधेगे तो सांसारिक व्यक्ति एवं वस्तु का प्रेम स्वतः ही घट जायेगा, तुच्छ प्रतीत होगा । सचमुच तो यह तुच्छ ही है । मोह वश यह हमें प्रिय एवं श्रेष्ठ प्रतीत होता है ।
ज्यों ज्यों प्रभु के प्रेम में वृद्धि होती जायेगी, त्यों त्यों संसार का प्रेम घटता जायेगा । प्रभु के साथ प्रेम करना अर्थात् प्रभु का नाम, मूर्ति, गुण आदि से प्रेम करना, प्रभु के चतुर्विध संघ से प्रेम करना, सात क्षेत्रों के प्रति प्रेम करना, प्रभु के परिवार रूप समग्र जीवराशि पर प्रेम रखना । प्रभु-प्रेमी के प्रेम की व्याप्ति इतनी बढे कि उसमें समग्र ब्रह्माण्ड का समावेश कर ले । कोई शेष न रहे ।
(१६४ ****************************** कहे कलापूर्णसूरि - १)