________________
अध्यात्मसार
भक्ति
तस्मिन् ( परमात्मनि ) परमप्रेमरूपा भक्ति: - नारदीय भक्तिसूत्र । जीव का मुख्य लक्षण ज्ञान है । उससे ही वह अजीव से भिन्न बनता है । जहां ज्ञान होता है वहां प्रेम भी होगा ही । प्रेम प्रतीक है । ज्ञान स्वरूप है । चेतन अन्य चेतन के साथ प्रेम करे, परन्तु अज्ञानी जीव शरीर के साथ प्रेम कर बैठता है । शरीर पुद्गल है । जो प्रेम प्रभु के साथ करना था, वह पुद्गल के साथ हो गया । सर्वथा विपरीत हो गया । 'जीवे कीधो संग, पुद्गले दीधो रंग ।' बात खतम । आत्मा दूषित हो गया ।
1
जीव प्रेम-रहित कदापि बन नहीं सकता । वह प्रेम कहीं न कहीं तो होने वाला ही है ।
कहीं मानना मत, वीतराग भगवान प्रेम-रहित बन गये है । प्रभु का प्रेम तो क्षायिक भाव का बन कर पराकाष्ठा पर पहुंच गया है । परम वात्सल्य एवं परम करुणा से वह पहचाना जाता है ।
सम्यग्दृष्टि के लक्षणों में यह प्रेम ही अभिव्यक्त हुआ है । शम, करुणा, अनुकम्पा आदि प्रेम ही व्यक्त करते हैं । दूसरों को स्वयं की दृष्टि से देखना प्रेम है । सिद्ध भगवान सभी को अपने समान पूर्ण रूप से देखते है । क्या यह कम प्रेम है ? प्रेम के बिना दया, करुणा, अनुकम्पा आदि हो ही नहीं सकते । हमें अब प्रेम का स्थान बदलना है । अब प्रेम पुद्गल से प्रभु की ओर ले जाना है ।
प्रभु को प्राप्त करने के चारों योगों में प्रेम दृष्टिगोचर हो रहा है । प्रीति, भक्ति में तो स्पष्ट रूप से प्रेम है ही ।
वचन-आज्ञा में भी प्रेम स्पष्ट है ही । प्रेम न हो उसकी बात क्या आप मानेंगे ? वचन अर्थात् आज्ञा-पालन ।
असंग जिसके प्रति प्रेम हो उसके स्वरूप के प्रति भी प्रेम होगा ही । जिसके प्रति प्रेम हो उसके साथ ही एकमेक हुआ जा सकता है । असंग अर्थात् पुद्गल का संग त्याग कर प्रभु के साथ एकमेक बन जाना ।
कहे कलापूर्णसूरि १ **
-
*** १५९