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- सन्निपात के रोगी को आप औषधि देने के लिए जाये और वह आपको थप्पड़ भी लगा दे तो भी आप उस पर क्रोध नहीं करते, उसकी दया का ही चिन्तन करते हैं । इसी प्रकार से सम्यग्दृष्टि व्यक्ति अपराधी के प्रति भी दया का चिन्तन करते हैं । क्रोध की तो बात ही कहां ? बेचारा कर्माधीन है, इस का दोष नहीं है, यह तो करुणा - पात्र है, क्रोध-पात्र नहीं ।
. भगवान का साधु भिखारी नहीं है, चक्रवर्तियों का भी चक्रवर्ती है । उसे जो सुख प्राप्त है, वह देवेन्द्र या चक्रवर्ती के लिए भी दुर्लभ है ।।
परन्तु वे साधु सहन करने वाले, साधक और सहायक होने चाहिये । * अहिंसा से पुण्यानुबंधी पुण्य होता है । संयम से संवर और
तप से निर्जरा होती है । यह पुन्य आदि तीनों नौ तत्त्वों में उपादेय है । इन तीनों के मिलन से मोक्ष होता है ।
अहिंसा का पालन करें तो संयम पाला जा सकता है ।
संयम का पालन करें तो तप पाला जा सकता है। अहिंसा के लिए संयम, संयम के लिए तप चाहिये । इन तीनों में कार्यकारण भाव है।
• प्रमाद गति को रोकने वाला है, फिर वह गति चाहे द्रव्य हो या भाव ! द्रव्य मार्ग की गति और मोक्ष मार्ग की गति को प्रमाद रोकता है ।
. रामचन्द्रमुनि केवलज्ञान की प्राप्ति की तैयारी में थे तब सीतेन्द्र ने सोचा, 'यदि ये पहले मोक्ष में जायेंगे तो ? नहीं, साथसाथ मोक्ष में जाना है ।' उपसर्ग किये पर रामचन्द्रजी तो ध्यान में अटल रहे, केवलज्ञान प्राप्त किया । सीता पीछे रह गये ।
साधना मार्ग में आगे बढ़ने वाला पीछे वाले की प्रतीक्षा करके खड़ा नहीं रह सकता । पीछे वाले को ही दौड़ना रहा ।
• हम प्रतिकूलता मिटाने का प्रयत्न कर रहे हैं, परन्तु प्रतिकूलता के प्रति घृणा को मिटाने का हम प्रयत्न नहीं करते । परिणाम यह होता है कि प्रतिकूलता मिटती नहीं और अनुकूलता मिलती नहीं । (कहे कलापूर्णसूरि - १ *
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