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स्वभावरमणता, सामायिक - ये जैन दर्शन के समापत्ति के लिए शब्द हैं । वि.संवत् २०२६ में पं. भद्रंकर विजयजी महाराज को लिखा, वे प्रसन्न हुए । नवसारी के समीपस्थ जलालपुर में परम शान्ति थी । मैं महिने में पांच उपवास करता । वहां के परम शान्त वातावरण में ध्यान लग जाता ।
० अहिंसा से... निर्मलता... उपशम... दर्शन । संयम से... स्थिरता... विवेक... ज्ञान ।
तप से... तन्मयता... संवर... चारित्र आता है। यह त्रिपुटि सब जगह लागू होती है ।
दान से निर्मलता, शील से स्थिरता, तप से तन्मयता । भाव से तीनों की एकता ।
प्रश्न - यह समापत्ति सम्यक्त्व से पूर्व होती हैं कि बाद में ?
उत्तर - जितने 'करण' अन्तवाले शब्द (अपूर्व करण, यथाप्रवृत्ति करण आदि) है, वे सब समाधिवाचक हैं ।
करण अर्थात् - 'निर्विकल्प समाधि!'
ध्यान विचार ग्रन्थ पढने के बाद लगा कि समस्त ध्यानपद्धतियों का इसमें समावेश है ।
चार लाख, ६८ हजार से अधिक ध्यान के भेद उसमें बताये गये हैं। आपमेंसे किसी ने पढे हैं कि नहीं ? यह मालुम नहीं हैं, परन्तु पढने योग्य है, यह अवश्य कहूंगा ।
अभव्य जीव भी अनन्त बार यथाप्रवृत्तिकरण करते हैं । यथाप्रवृत्तिकरण अर्थात् 'अव्यक्त समाधि' यों हरिभद्रसूरिजी कहते है । चरम यथाप्रवृत्तिकरण चरमावर्त्त काल में ही आता है ।
काल भी पूरक है । अचरम काल न हो तो चरम काल कैसे आता ?
अभव्य जीव को भी 'विषय समापत्ति' होती है, भाव समापत्ति नहीं होती । विषय-समापत्ति के बिना एकाग्रता नहीं आती ।
हरिभद्रसूरिजी ने चौथी दृष्टि में समापत्ति का वर्णन किया है ।
* आत्मशुद्धि को रोकने वाली कर्म-प्रकृति है । यदि इसे हटायें तो आत्मशुद्धि समीप ही है। कर्म-ग्रन्थ का अध्ययन करते
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