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आ पाती । इस कारण चारित्र आवश्यक है।
. प्रभु के चार निक्षेपा अर्थात् प्रभु के चार स्वरूप ।
प्रभु के नाम, मूर्ति, द्रव्य आदि उनके ही रूप हैं । आगम, तीर्थ आदि भी प्रभु के ही रूप हैं ।।
चतुर्विध संघ द्रव्य तीर्थ हैं । भावी तीर्थंकर इनमें से बनते हैं । जिनागम भावतीर्थ हैं। जिनागम अर्थात् जिनागमों के अनुसार व्यतीत होने वाला जीवन । कागज पर लिखे हुए शब्द या बोले हुए आगम के शब्द तो द्रव्य-आगम हैं ।
ग्यारह गणधरों को द्वादशांगी बनाने की शक्ति प्रदान करने वाले कौन ? जो मिथ्यात्वी थे, अभिमानी थे, उन्हें नम्र बना कर तीर्थ के उत्तराधिकारी किसने बनाया ? भगवान ने ।
ऐसे गणधर क्या यह मानते हैं कि मैंने अपने ही पुरुषार्थ से दीक्षा ग्रहण की, द्वादशांगी बनाई आदि ? नहीं, वे तो यही मानते थे कि भगवान ने ही सब दिया है और देंगे। उन्होंने भगवान के समक्ष प्रार्थना करते कहा था -
__ 'आरुग्ग बोहिलाभं समाहिवर मुत्तमं दितु'
'भगवन् ! हमें आरोग्य, बोधिलाभ एवं उत्तम प्रकार की समाधि प्रदान करो'
गुरु भी आपको स्वयं की ओर से चारित्र का दान नहीं देते, भगवान की ओर से देते हैं, पूर्वाचार्यों की ओर से देते हैं । वे तो केवल प्रतिनिधि हैं । इसी लिए उस समय बोला जाता है - 'खमासमणाणं हत्थेणं'
रसोइया कभी अभिमान नहीं कर सकता कि मैंने सबको जिमाया है । वह यही कहेगा कि सेठ ने जिमाया है
गुरु रसोइया हैं, सेठ भगवान है ।
गुरु शिष्य को कहता है - भगवान के प्रभाव से मुझे प्राप्त हुआ है । अतः आप भी भगवान की भक्ति करना ।
गुरु अपने नहीं, भगवान के भक्त बनाये, भगवान के साथ जोड़ दे वही सच्चे गुरु हैं।
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