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अध्यात्मसार
भक्ति भगवति धार्या
* जगत में स्वार्थ के कारण तो भक्ति अनेक व्यक्तियों की की, परन्तु अब प्रभु की निःस्वार्थ भक्ति करनी है। पूनमिया, महुड़ी, नाकोड़ा-भेरु आदि के भक्तों को विशेष सूचना है कि जितनी अपेक्षा छोड़ेंगे, उतना अधिक प्राप्त होगा। मांग-मांग कर कितना मांगेगे ? हकीकत यह है कि क्या मांगे ? यह भी हम नहीं जानते । नहीं मांगने पर भी भगवान देने वाले हैं - इतना विश्वास होना चाहिये ।
- कई लोग कहते हैं - महाराज ! हमने जिनालय का कार्य शुरू किया और हमारा पतन शुरू हो गया । ऐसे व्यक्तियों को मैं कहता हूं - पतन आपके कर्मों के कारण हुआ है। भगवान कभी किसी का बुरा नहीं करते । ये तो अच्छा हुआ कि जिनालय का कार्य पूर्ण हो गया । यदि ऐसी स्थिति कुछ समय पूर्व हुई होती तो आप क्या कर सकते थे ? इसमें भी भगवान की कृपा देखो । सुख में, अनुकूलता में तो सब देखते हैं, दुःख एवं प्रतिकूलता में भी जो भगवान की कृपा देख सकते हैं वे ही सच्चे भक्त हैं ।
___भक्ति का फल बताते हुए 'शकस्तव' में कहा है - समस्त सम्पत्तियों का मूल प्रभु का अनुराग बढता जाता है ।
'सर्व - सम्पदां मूलं जायते जिनानुरागः ।'
ऐसा प्रेम जग जाये तो बाकी तो ठीक है, प्रभु का पद भी दुर्लभ नहीं है।
प्रभु भक्ति सम्यक्त्व को निर्मल करती है, बोधि एवं समाधि प्रदान करती है । 'आरुग्ग बोहिलाभं समाहिवर मुत्तमं दितु' - लोगस्स
नवकार के बाद 'लोगस्स' सूत्र का महत्त्व है। छ: आवश्यक में द्वितीय आवश्यक (चतुर्विशिति स्तव) लोगस्स की महिमा का गान करता है ।
सामायिक के परिणाम उत्पन्न करने हों अथवा स्थायी रखने
कहे
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