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व्यवहार के बिना हम निश्चय प्राप्त नहीं कर सकते । व्यवहार कारण है, निश्चय कार्य है
आलम्बन ऊपर चढाता है, गिरते हुए को बचाता है । यदि भगवान का आलम्बन लें तो नीचे कभी नहीं गिरेंगे, उत्तरोत्तर विकास ही होगा।
देखें - पूज्य उपाध्यायजी महाराज के उद्गार : श्री अरिजन भव-जलनो तारु, मुज मन लागे छे वारु रे । बाह्य ग्रही जे भव-जल तारे, आणे शिवपुर आरे रे.. (१) तप-जप-मोह महातोफाने, नाव न चाले माने रे । पण मुज नवि भय हाथो हाथे, तारे ते छ साथे रे । (२) भक्तने स्वर्ग-स्वर्गथी अधिकुं, ज्ञानी ने फल देई रे । काया कष्ट विना फल लइये, मनमां ध्यान धरेई रे । (३) जे उपाय बहविधनी रचना, जोग माया ते जाणो रे । शुद्ध द्रव्य गुण पर्याय ध्याने, शिव दिए प्रभु सपराणो रे । (४) प्रभु-पद वलग्या ते रह्या ताजा, अलगा अंग न साजा रे । वाचक 'जस' कहे अवर न ध्याऊं, ए प्रभुना गुण गाउं रे । (५)
यशोविजयजी प्रकाण्ड पण्डित थे। उन्होंने चिन्तामणि नामक नव्य न्याय के ग्रन्थ को केवल एक दिन में कण्ठस्थ कर लिया था । सातसौ पचास श्लोक यशोविजयजी ने और ५०० विनय विजयजी ने कण्ठस्थ कर लिये । तब एक दिन के लिए पण्डितजी बाहर गये थे।
आप एक बात समझ लें । भक्त की भाषा भिन्न होती है, तार्किकों की भाषा भिन्न होती है ।
तार्किक कहेंगे - भगवान कुछ भी करते नहीं हैं । भक्त कहेंगे - भगवान ही सब करते हैं ।
'देव-गुरु-पसाय' व्यवहार से बोलते हैं, परन्तु क्या आप हृदय से बोलते हैं ?
महान् नैयायिक यशोविजयजी इस स्तवन में कैसे परम भक्त के रूप में प्रतीत होते हैं ? है कहीं तर्क की गन्ध ? है तर्क का तूफान ? _ 'मेरा हाथ पकड़ कर मोक्षनगर तक भगवान ले जाते हैं' - ऐसे उद्गार भक्त के अलावा कौन प्रकट कर सकता है ? कहे कलापूर्णसूरि - १ ****
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