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से ही उद्धत स्वभाव के थे । दीक्षा ग्रहण करके अन्त में उन्होंने अलग चौका जमाया ।
गुरु ने उन्हें दीक्षा नहीं दी थी, परन्तु उन्हों ने अपने आप ही वेश धारण कर लिया था । उसके बाद दाक्षिण्य से गुरु को विधिपूर्वक उन्हें दीक्षा देनी पड़ी ।।
दीक्षार्थी उम्र की अपेक्षा से आठ वर्ष से अधिक और ६५ वर्ष के अन्दर होना चाहिये । आठ वर्ष का छोटा बालक नहीं कहलाता ।
अविवेक का त्याग वास्तविक दीक्षा है। बाह्य त्याग के साथ अविवेक त्यागी विरल होते है । बाह्य त्याग तो पशु-पक्षी भी करते हैं, परन्तु मूल बात विवेक की है । विराग विवेक से स्थिर रहता है । कषाय आये तब समझें कि अविवेक प्रविष्ट हो गया है । परित्याग करने योग्य कषायों को अपनाया तो विवेक कहां रहा ?
'कस्मिन्' द्वार । कौन से क्षेत्र में दीक्षा देनी चाहिये ?
जहां भगवान का समवसरण हुआ हो, उनका विचरण हुआ हो, वह भूमि उत्तम मानी गई है ।
जिनभवन, ईक्षु-वन (गन्ने का खेत) जहां बरगद-पीपल आदि दूधिये वृक्ष हो, जहां आवाज की प्रतिध्वनि होती हो, दक्षिणावर्त पानी फिरता हो, वह भूमि दीक्षा के लिए श्रेष्ठ है ।
दीक्षा कहां नहीं दी जानी चाहिये ? टूटी-फूटी, खण्डहरवाली, जली हुई स्मशान भूमि, अमनोज्ञ भूमि, खारी भूमि, अंगारोंवाली, विष्ठा-उकरडेयुक्त भूमि आदि स्थानों पर दीक्षा नहीं देनी चाहिये ।
दीक्षा के लिए कालशुद्धि : चतुर्दशी, अमावस्या, अष्टमी, नवमी, द्वादशी वर्जित हे (हम राजनांद गांवसे कृष्ण पक्षकी चतुर्थी, शनिवार को नीकले । यहां प्रवेश भी कृष्ण पक्षकी चतुर्थी शनिवार को हुआ था ।)
दीक्षा हेतु श्रेष्ठ नक्षत्र : ३ - उत्तरा, रोहिणी, अनुराधा, रेवती, पुनर्वसु, स्वाति, अश्विनी आदि । (विशेष गुरु-गम से समझें) _ 'उत्साह' ही मुहूर्त है' - यों कह कर ज्योतिष की उपेक्षा नहीं की जा सकती, जिनाज्ञा-भंग का दोष लगता है ।
वि. संवत् २०५३, माघ शुक्ला २, सिरिगुप्पा (कर्णाटक) में कहे कलापूर्णसूरि - १ *****
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