________________
१६. वैराग्यम् - इन्द्रियों के विषय में आसक्त बना हुआ मन चंचल होता है । उसकी चंचलता समाप्त करने के लिए वैराग्य चाहिये ।
१७. आत्मनिग्रहः वैराग्य के पश्चात् ही आप आत्म-निग्रह कर सकते हैं ।
१८. संसार के दोष देखें ।
संसार अर्थात् विषय-कषाय । प्रतिपल विषय-कषाय के दोषों का विचार करें ।
विषय विष से भी भयंकर हैं । विष एक ही बार मारता है, जबकि विषय बार-बार मारते हैं, भाव-प्राण का संहार करते हैं । यह 'Sugar coated' हैं । विषयों का उपभोग करनेवाले को ख्याल नहीं रहता । उसमें विष दृष्टिगोचर हो तो ही विषयों का परित्याग किया जा सकता है ।
चाहे जितने विषयों का उपभोग करो, परन्तु उपभोग करनेवाले को तृप्ति नहीं दे सकते ।
ब्रह्मदत्त को याद करें । आज वह कहां है ?
कषायों को उत्पन्न करनेवाले भी विषय हैं । असल में जीव की विषयों के प्रति आसक्ति है। यदि विषयों के उपभोग में कोई अडचन डालता हैं तो उस पर कषाय होता है ।
___ 'जे गुणे से मूलठाणे, मूलठाणे से गुणे ।'
विषय आत्मा के नहीं, पुद्गल के गुण हैं । पुद्गल पर हैं । 'पर' के प्रति यदि आसक्ति करें तो क्या दण्ड नहीं मिलेगा ? दूसरे के मकान पर आप अपना अधिकार बताओ तो क्या वह आपको दण्ड नहीं देगा ? आप पर मुकदमा नहीं करेगा ? पुद्गलों का हम पर मुकदमा चल रहा है । वे कहते हैं - 'यह जीव मुझ पर अपना अधिकार बताता है । इसे दण्ड मिलना चाहिये ।' फल स्वरूप हमें दण्ड मिला है, मिल रहा है और भविष्य में भी मिलेगा, यदि हम 'पर' का कब्जा न छोड़ें ।
तीर्थंकरों का भला हो कि जिन्हों ने हमें समझाया, 'यह कब्जा छोड़ो, 'पर' के प्रति आपका स्वामित्व हटाओ, तो ही आप दण्ड से मुक्त हो सकेंगे । इसके बिना आपका संसार-परिभ्रमण बन्द नहीं होगा ।
८८
******************************
का