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'विरति ने प्रणाम करीने इन्द्र सभामां बेसे मेरे प्यारे, ए व्रत जगमां दीवो', वीरविजयजी महाराज ने ब्रह्मचर्य की महिमा इस प्रकार गाई है ।
ब्रह्मचर्य की रक्षा नौ वाड़ों से की जाती हैं । ब्रह्म अर्थात् आत्मा, उसमें चरना वह ब्रह्मचर्य ।
चौथा व्रत हमें आत्म-लीन बनाता है । जो उसका भंग करता है, वह आत्मा में रमण नहीं कर सकता ।
पांचवा व्रत : अपरिग्रह । विपक्ष में लोभ ।
एकेन्द्रिय जीव भी परिग्रह संज्ञा से अपनी जड़ निधान पर जमाते हैं । आसक्ति वाले जीव एकेन्द्रिय बनकर ऐसा करते है।
हमारे लिए (साधुओं के लिए) परिग्रहत्याग और गृहस्थों के लिए परिग्रह-परिमाण ।
खोखे भर कर रखें वे उपकरण नहीं है, अधिकरण कहलाते हैं । जब चाहिए तब मिलते है फिर खोखे क्यों भरें ? उठा सके उतनी ही उपधि रखें । अधिक की क्या आवश्यकता है ?
हमें देखकर नये व्यक्ति भी सीखेंगे, यह मत भूलना । भचाउ में हम पू. कनकसूरिजी महाराज के साथ थे । उपग्रह-उपकार करने के लिए गच्छाधिपति के पास स्टोक रखना पड़ता हैं।
अमृतभाई के पिता, गोरधनभाई ने कहा था, आपको इतना परिग्रह ? हमने कहा-'ये तो आचार्य भगवंत के है।' तब वे समझे । आचार्य महाराज को आवश्यकता पड़ती है, परन्तु अन्य सबको क्या आवश्यकता ? 'गठरियां आई कि नही ? खो तो नहीं गई न ?' फिर मन ऐसे ही विचारों में रहता है ।
___ 'परि' अर्थात् चारों ओर से, 'ग्रह' अर्थात् लेना, यह परिग्रह । 'बावो बैठो जपे, जे आवे ते खपे,' खोखे का ध्यान नहीं रखे तो कितने जन्तु पड़ेंगे ? खोखे बढने पर अलमारी की आवश्यकता होती है । अलमारी कम पड़ने पर फ्लैट की आवश्यकता होती है । कहां तक पहुंच गये हम ?
फिर भी कहलाते हैं हम अपरिग्रही ! बोक्स से मोक्ष मिलेगा ऐसी तो मान्यता नहीं है ना ?
शिष्यो आदि पर राग भी परिग्रह है । मूर्छा ही परिग्रह है। पिछले द्वार से परिग्रह प्रविष्ट न हो जाये, उसका ध्यान रखना है ।
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