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रघुवंशमहाकाव्य
हिरण्यनाभ से अत्यन्त शान्त प्रकृतिवाला कौसल्य उत्पन्न हुआ जिसका यश पूरे ब्रह्माण्ड में फैला था। कौसल्य से ब्रह्मिष्ठ नाम का पुत्र हुआ जिसके राज्य में प्रजा अत्यन्त आनन्दित हुई। इस ब्रह्मिष्ठ ने अपने प्रात्मज का नाम ही पुत्र रखा जो विष्णुसदृश तेजस्वी और गुरुजनों का अत्यन्त भक्त था। पुत्रनामक पुत्र को राज्य देकर राजा ब्रह्मिष्ठ स्वर्ग सिधार गया। पुत्र को पौष की पौर्णमासी को पुत्र उत्पन्न हुआ, अतः उसका नाम पुष्य रखा गया। पुष्य जब शासनयोग्य हो गया तो पुत्र जैमिनि से दीक्षा लेकर योगसाधना में लीन हो गया। पुष्य का पुत्र ध्रुवसन्धि हुआ। ध्रुवसन्धि का पुत्र सुदर्शन अभी बालक ही था कि ध्रुवसन्धि को शिकार खेलते समय शेर ने मार डाला।
प्रजा ने छः वर्ष के बालक सुदर्शन कोही राजगद्दी पर बैठा दिया और ध्रुवसन्धि के समान ही उसका आदर करने लगी। उसके तेजोमण्डल से सिंहासन भरा-सालगता था। यद्यपि वह सिंहासन पर चढ़ नहीं पाता था किन्तु उसकी आज्ञा का पालन समुद्रपर्यन्त होता था और बड़े-बड़े नरेश रघुवंश के इस अंकुर के सामने नतमस्तक होते थे। वह यद्यपि अभी अच्छी प्रकार लिखना-पढ़ना भी नहीं सीख पाया था परन्तु विद्वान् गुरुपों की कृपा से समग्र दण्डनीति का प्रयोग जान गया था। पूर्वजों के प्रताप एवं अपनी विलक्षण तेजस्विता से वह सम्यक्तया पृथ्वी का शासन करने लगा था। धीरे-धीरे उसका शरीर ही नहीं रघुवंशियों के सारे गुण भी उसमें वृद्धि को प्राप्त हो रहे थे। अपने पूर्व संस्कारों से उसने धर्म, अर्थ और काम के उपयुक्त प्रान्वीक्षिकी, त्रयी और वार्ता का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर प्रजात्रों को वश में कर लिया था। इस प्रकार लक्ष्मी, सरस्वती और पृथ्वी तीनों सपत्नीभाव से उसकी भरपूर सेवा करने लगी थीं।