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भ्रमर पंक्ति दूसरे वृक्षों पर नहीं जाती है। सुनन्दा उनका वर्णन यों करती है यह इक्ष्वाकु के वंश में उत्पन्न महाराज दिलीप के पुत्र रघु का रघु ने चारों दिशाओं की सम्पत्ति बटोर कर और विश्वजित् सम्पत्ति दान कर मिट्टी के बरतन ही अपने निकट रखे थे । रघु का वैसा ही पुत्र है जैसा इन्द्र का जयन्त है । इसलिये कुल से, कान्ति से, नूतन अवस्था से और विनयप्रधान उन उन गुरणों से तुम्हारे ही अनुरूप इस कुमार को तुम वरण कर लो तो रत्न और सोने का समागम हो जाय ।
यह कुमार उसी
सुपुत्र है । जिस
यज्ञ में सम्पूर्ण
इस प्रकार कुमारी इन्दुमती ने सुनन्दा के हाथों से उस वरमाला को श्रज के गले में पहना दिया । और उधर वरपक्ष के लोग प्रातःकाल में प्रफुल्ल कमल सरोवर के समान प्रसन्न हो गये, तथा दूसरे राजा लोग कुमुदवन के समान मुरझा गये ।
सप्तम सर्ग
स्वयंवर का कार्य सम्पन्न होनेपर अपने समान योग्य वर के साथ अपनी बहन को लेकर महाराज भोज ने नगर में प्रवेश किया। मुरझाये हुए चेहरे वाले दूसरे राजा लोग भी इन्दुमती के प्रति निराश होकर अपने रूप एवं वेषभूषा की निन्दा करते हुए अपने २ शिविरों में चले गये ।
र ज वधु के साथ, अच्छी प्रकार फूलमाला तथा ध्वजाओं से सजाये गये राजमार्ग में आ गये ।
तब वर-वधू को देखने की उत्कण्ठा वाली नगर की सुन्दरियों की इस प्रकार की चेष्टाएं अपने २ घरों में होने लगी । कोई स्त्री अपने केश पाशमें माला का बान्धना भूलकर जूड़े को हाथ थामे ही खिड़की में जा पहुंची। तो दूसरी सुन्दरी महावर लगा रही दासी से अपना पैर छुड़ाकर झरोंखे तक महावर लगे पैर के निशान बनाती गई । और तीसरी एक नेत्र में काजल कर तथा दूसरे में विना काजल लगाये सलाई को हाथ में लिये ही खिड़की में जा पहुंची ।