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रघुवंशमहाकाव्य
चेतनता का व्यवहार जिस प्रकार कवि ने अंकित किया है उसमें भारतीय संस्कृति का सनातन सन्देश भरा पड़ा है । पञ्चम अंक में दुष्यन्त का प्रमाद अंकित है। यहां पहुंचने पर आश्रम का आदर्श संसार जैसे समाप्त हो जाता है और राजदरबार का मायावी संसार, जिसे कवि ने ऋषिपुत्रों के शब्दों में "आग की लपटों से घिरा भवन - - हुतवहपरीतं गृहमिव" कहा है, दीख पड़ता है । शकुन्तला द्वारा राजा की भर्त्सना, राजा के मन की अनिश्चित स्थिति और अन्त में शकुन्तला का अदृश्य हो जाना, पूरे लोकव्यवहार का दर्शन कराता है । छठे अंक में दुष्यन्त का मार्मिक पश्चात्ताप चित्रित किया गया है । दोनों जैसे तपस्या की अग्नि में तपाकर खरे उतारे जा रहे हों । अन्तिम अंक में दोनों का मिलन हो जाता है । कण्व के आश्रम में इन दोनों का प्रथम मिलन जितना मादक था यह मरीचि के आश्रम का मिलन उतना ही मर्मवेधी है। दुष्यन्त के अन्दर अपराध की स्वीकृति और परिमार्जन की बलवती प्रेरणा तथा शकुन्तला के अन्दर अपराध के विस्मरण एवं क्षमा की भावना का अद्भुत चित्रण कवि ने किया है ।
भारतीय प्रेम के आदर्श का वास्तविक रूप इसमें उद्घाटित हुआ है और मानवतावादी जितने भी उद्देश्य हो सकते हैं सबका समावेश इसमें हुआ है। इस रचना को पढ़कर जर्मन विद्वान् गेटे का यह कथन कितना सार्थक है
“यदि तुम वसन्त के फूल, शीत ऋतु के फल, आत्मा को मोहित, प्रसन्न तथा पुष्ट करनेवाला रसायन चाहते हो और स्वर्ग एवं पृथ्वी का सम्मिलन, ये सब एक ही जगह देखना चाहते हो तो शाकुन्तलम् का अध्ययन करो; वहाँ तुम्हें यह सब मिल जायगा ।"
गीतिकाव्य
१. ऋतुसंहार
६ सर्गों में विभक्त इस लघुकाव्य में ग्रीष्म से प्रारम्भ कर वसन्तपर्यन्त ६ ऋतु का वर्णन है जो अत्यन्त स्वाभाविक और सरल रूप में मिलता है । इसीलिये कुछ लोगों का कथन है यह कवि की प्रारम्भिक अपुष्ट रचना है और कुछ कालिदास