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________________ कालिदास का 'रघुवंश' लोककल्याण का सन्देश देनेवाला एक ऐसा महाकाव्य है जो विश्वसाहित्य में अपना सानी नहीं रखता। इसमें उन्नीस सर्गों में 'सूर्यप्रभव' वंश के अभ्युदय और क्षयोन्मुखता का वर्णन अत्यन्त सुन्दरता और विशदता से किया गया है। इसके प्रथम पन्द्रह सर्गों में कालिदास ने सम्पूर्ण भारत की धार्मिक, आध्यात्मिक, आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक, राजनीतिक सभी प्रकार की संस्कृति का दिग्दर्शन कराते हुए रघुवंश-रूपी सूर्य को प्रखरता तक पहुंचाया है। इसके बाद रघुवंश का गौरव क्षीणता की ओर उन्मुख हुआ। राम के स्वर्गारोहण के बाद राज्य छिन्नभिन्न हो गया, राघवों की अयोध्या उजड़कर खंडहर हो गई । यद्यपि कुश ने पुनः अयोध्या को राजधानी बनाकर अपनी भूल सुधारी, किन्तु राजधानी उजड़ने से राष्ट्र को जोधक्का लगा उसे वह न संभाल सका । कुश के बाद जिन चौबीस उत्तराधिकारियों का वर्णन है उनमें से अन्तिम अग्निवर्ण तो विषय-वासना में लिप्त होकर राजयक्ष्मा का ग्रास बना और सिंहासन को सूना छोड़ कर चल बसा। दिलीप की तपस्या, रघ के पराक्रम और राम के अलौकिक व्यक्तित्व से जो यशस्वी वंश. दोपहर के सूर्य की भांति दशों दिशाओं में प्रखरता से तप रहा था वही ध्रुवसन्धि-जैसे व्यसनी और अग्निवर्णजैसे लम्पट उत्तराधिकारियों द्वारा विलुप्त हो गया। इस प्रकार कालिदास ने इस महाकाव्य द्वारा यह सन्देश दिया है कि तपस्या, वीरता, सेवाभाव और त्याग की नींव पर ही राजाओं या राजवंशों के महल टिक सकते हैं; प्रमाद, कायरता और लम्पटता के थपेड़ों को वे नहीं सह सकते; जर्जर होकर धराशायी हो जाते हैं। रघुवंश की लगभग चालीस टीकाओं में मल्लिनाथ की संजीवनी-टीका सर्वाधिक प्रचलित हुई। इस टीका के साथ इसी के आधार पर हिन्दी व संस्कृत में अपनी व्याख्या 'छात्रोपयोगिनी' लिखकर पण्डित धारादत्त शास्त्री ने यह संस्करण प्रस्तुत किया है। श्री जनार्दन शास्त्री पाण्डेय-कृत उपोद्घात एवं सर्गों के कथासार से इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। मूल्य : रु० १३०
SR No.032598
Book TitleRaghuvansh Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Makavi, Mallinath, Dharadatta Acharya, Janardan Pandey
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1987
Total Pages1412
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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