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ब्रैडले जब यह कहते हैं "मानव चरित्र का निर्माण होता है। तो उनका तात्पर्य यही है कि अतीत के कृत्य ही वर्तमान चरित्र का निर्माता है और इसी वर्तमान चरित्र के आधार पर हमारे भावी चरित्र (व्यक्तित्व) का निर्माण होता है।
कर्म-सिद्धान्त की आवश्यकता आचारदर्शन के लिए उतनी ही है, जितना विज्ञान के लिए कार्यकारण सिद्धान्त की। विज्ञान कार्यकारण सिद्धान्त में आस्था प्रकट करके ही आगे बढ़ सकता है और आचारदर्शन कर्म-सिद्धान्त के आधार पर ही समाज में नैतिकता के प्रति निष्ठा जागृत कर सकता है। जिस प्रकार कार्यकारण-सिद्धान्त के परित्याग करने पर वैज्ञानिक गवेषणाएँ निरर्थक हैं, उसी प्रकार कर्म-सिद्धान्त से विहीन आचारदर्शन भी अर्थशून्य होता है। प्रो. वेंकटरमण लिखते हैं कि 'कर्म सिद्धान्त कार्यकारण सिद्धान्त के नियमों एवं मान्यताओं का मानवीय आचरण के क्षेत्र में प्रयोग है, जिसकी उपकल्पना यह है कि.जगत् में कुछ भी संयोग अथवा स्वच्छन्दता का परिणाम नहीं है। जगत् में सभी कुछ किसी नियम के अधीन है। डॉ. आर.एस. नवलक्खा का कथन है कि 'यदि कार्यकारण-सिद्धान्त जागतिक तथ्यों की व्याख्या को प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत करता है, तो फिर उसका नैतिकता के क्षेत्र में प्रयोग करना न्यायिक क्यों नहीं होगा। मैक्समूलर ने भी लिखा है कि 'यह विश्वास कि कोई भी अच्छा या बुरा कर्म (बिना फल दिये) समाप्त नहीं होता, नैतिक जगत् का ठीक वैसा ही विश्वास है जैसा कि भौतिक जगत् में ऊर्जा की अविनाशिता के नियम का विश्वास है।' कर्म-सिद्धान्त और कार्यकारण-सिद्धान्त में साम्य होते हुए भी उनके विषयों की प्रकृति के कारण दोनों में जो मौलिक अन्तर है, उसे ध्यान में रखना चाहिए। भौतिक जगत् में कार्यकारण-सिद्धान्त का विषय जड़ पदार्थ होते हैं, अतः उसमें जितनी नियतता होती है वैसी नियतता प्राणीजगत् में लागू होने वाले कर्मसिद्धान्त में नहीं हो सकती। यही कारण है कि कर्म-सिद्धान्त में नियतता
और स्वतन्त्रता का समुचित संयोग होता है। [2]
जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त