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जैन और बौद्ध दर्शन में पुण्यविषयक विशेष अन्तर यह है कि जैन दर्शन में संवर, निर्जरा और पुण्य में अन्तर किया गया है, किन्तु बौद्ध दर्शन में ऐसा स्पष्ट अन्तर नहीं है। जैनाचारदर्शन में सम्यक्दर्शन (श्रद्धा), सम्यक्ज्ञान (प्रज्ञा) और सम्यक् चारित्र (शील) संवर और निर्जरा के अन्तर्गत हैं और बौद्ध आचारदर्शन में धर्म, संघ और बुद्ध के प्रति दृढ़ श्रद्धा, शील और प्रज्ञा (कुशल कर्म) के अन्तर्गत है। ४. पुण्य और पाप (शुभ और अशुभ) की कसौटी
शुभाशुभता या पुण्यपाप के निर्णय के दो आधार हो सकते हैं- १. कर्म वा बाह्य स्वरूप अर्थात् समाज पर उसका प्रभाव और २. कर्ता का अभिप्राय। इन दोनों में कौन-सा आधार यथार्थ है, यह विवाद का विषय रहा है। गीता और बौद्ध दर्शन में कर्ता के अभिप्राय को ही कृत्यों की शुभाशुभता का सच्चा आधार माना गया। गीता स्पष्टरूप से कहती है कि जिसमें कर्तत्व भाव नहीं है. जिसकी बुद्धि निर्लिप्त है, वह इन सब लोगों को मार डाले तो भी यह समझना चाहिए कि उसने न तो किसी को मारा है और न वह उस कर्म से बन्धन को प्राप्त होता है। धम्मपद में बुद्ध वचन भी ऐसा ही है (नैष्कर्म्यस्थिति को प्राप्त) ब्राह्मण माता-पिता को, दो क्षत्रिय राजाओं को एवं प्रजासहित राष्ट्र को मारकर भी निष्पाप होकर जाता है। बौद्ध दर्शन में कर्ता के अभिप्राय को ही पुण्य-पाप का आधार माना गया है। इसका प्रमाण सूत्रकृतांग के आर्द्रक संवाद में भी मिलता है। जहाँ तक जैन मान्यता का प्रश्न है, विद्वानों के अनुसार उसमें भी कर्ता के अभिप्राय को ही कर्म की शुभाशुभता का आधार माना गया है। मुनि सुशीलकुमारजी लिखते हैं, शुभ-अशुभ कर्म के बंध का मुख्य आधार मनोवृत्तियों ही हैं। एक डॉक्टर किसी को पीड़ा पहुँचाने के लिए उसका व्रण चीरता है। उससे चाहे रोगी को लाभ ही हो जाये परन्तु डॉक्टर तो पाप कर्म के बन्ध का ही भागी होगा। इसके विपरीत वही डॉक्टर करुणा के प्रेरित होकर व्रण चीरता है और कदाचित उससे रोगी की मृत्यु हो जाती
कर्म का अशुभत्व, शुभत्व एवं शुद्धत्व
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