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वस्तुतः जिस पर कर्म सिद्धान्त का नियम लागू होता है वह व्यक्तित्व अमूर्त नहीं है। हमारा वर्तमान व्यक्तित्व शरीर (भौतिक) और आत्मा ( अभौतिक) का एक विशिष्ट संयोग है। शरीरी आत्मा भौतिक तथ्यों से अप्रभावित नहीं रह सकता। जब तक आत्मा शरीर (कर्म - शरीर) के बन्धन से मुक्त नहीं हो जाती, तब तक वह अपने को भौतिक प्रभावों से पूर्णतया अप्रभावित नहीं रख सकती । मूर्त शरीर के माध्यम से उस पर मूर्त-कर्म का प्रभाव पड़ता है।
मूर्त का अमूर्त से सम्बन्ध
यह प्रश्न भी उठ सकता है कि मूर्त कर्म अमूर्त आत्मा से कैसे सम्बन्धित होते हैं? जैन विचारकों का समाधान यह है कि जैसे मूर्त घट अमूर्त आकाश के साथ सम्बन्धित होता है वैसे ही मूर्त कर्म अमूर्त आत्मा के साथ सम्बन्धित होते हैं । जैन विचारकों ने आत्मा और कर्म के सम्बन्ध को नीर-क्षीरवत् अथवा अग्नि लौहपिंडवत् माना है । यह प्रश्न भी उठ सकता है कि यदि दो स्वतन्त्र सत्ताओं - जड़ कर्मपरमाणु और चेतन में पारस्परिक प्रभाव को स्वीकार किया जायेगा तो फिर मुक्तावस्था में भी जड़-कर्म परमाणु आत्मा को प्रभावित किये बिना नहीं रहेंगे और मुक्ति का कोई अर्थ नहीं होगा । यदि वे परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करने में सक्षम नहीं है तो फिर बन्धन ही कैसे सिद्ध होगा? आचार्य कुन्दकुन्द ने इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि जैसे स्वर्ण कीचड़ में रहने पर भी जंग नहीं खाता जबकि लोहा जंग खा जाता है, इसी प्रकार शुद्धात्मा कर्मपरमाणुओं के मध्य रहते हुए भी उनके निमित्त से विकारी नहीं बनता जबकि अशुद्ध आत्मा विकारी बन जाता है। जड़-कर्म परमाणु उसी आत्मा को विकारी बना सकते हैं जो पूर्व में राग द्वेष आदि से अशुद्ध है। 8 वस्तुतः आत्मा जब तक भौतिक शरीर से युक्त होता है, तभी तक कर्मपरमाणु उसे प्रभावित कर सकते हैं। कर्म- शरीर के रूप में रहे हुए कर्म-परमाणु ही बाह्य जगत् कर्म-परमाणुओं का आकर्षण कर सकते हैं।
कर्म-सिद्धान्त
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