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सम्बन्ध है? पश्चिम में यह समस्या देकार्त के सामने भी उपस्थित थी। देकार्त ने इसका हल पारस्परिक प्रतिक्रियावाद के आधार पर किया। लेकिन स्वतंत्र सत्ताओं में परस्पर प्रतिक्रिया कैसी? स्पीनोजा ने उसके स्थान पर समानान्तरवाद की स्थापना की और जड़ चैतन्य में पारस्परिक प्रतिक्रिया न मानते हुए भी उनमें एक प्रकार के समानान्तर परिवर्तन को स्वीकार किया तथा इसका आधार सत्ता की तात्त्विक एकता माना। लाईबनीज ने प्रतिक्रियावाद की कठिनाइयों से बचने के लिए पूर्वस्थापित सामंजस्य की धारणा का प्रतिपादन किया और बताया कि सृष्टि के समय ही मन और शरीर के बीच ईश्वर ने ऐसी पूर्वानुकूलता उत्पन्न कर दी है कि उसमें सदा सामंजस्य रहता है, जैसे - दो अलग घड़ियां यदि एक बार एक साथ मिला दी जाती हैं तो वे एक दूसरे पर बिना प्रतिक्रिया करते हुए भी समान समय ही सूचित करती हैं, वैसे ही मानसिक परिवर्तन और शारीरिक परिवर्तन परस्पर अप्रभावित एवं स्वतन्त्र होते हुए भी एक साथ होते रहते हैं।
पश्चिम में यह समस्या अचेतन शरीर और चेतना के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर थी। जबकि भारत में सम्बन्ध की यह समस्या प्रकृति, त्रिगुण अथवा कर्म परमाणु और आत्मा के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर थी। गहराई से विचार करने पर यहाँ भी मूल समस्या शरीर और आत्मा के सम्बन्ध को लेकर ही है। यद्यपि शरीर से भारतीय चिन्तकों का तात्पर्य स्थूल शरीर से न होकर सूक्ष्म शरीर (लिंग-शरीर) से है। यही लिंगशरीर जैन दर्शन में कर्म-शरीर कहा जाता है जो कर्मपरमाणुओं का बना होता है और बंधन की दशा में सदैव आत्मा के साथ रहता है। यहाँ भी मूल प्रश्न यही है कि यह लिंग-शरीर या कर्म-शरीर आत्मा को कैसे प्रभावित करता है। सांख्य दर्शन पुरुष तथा प्रकृति के द्वैत को स्वीकार करते हुए भी अपने कूटस्थ आत्मवाद के कारण इनके पारस्परिक सम्बन्ध को ठीक प्रकार से नहीं समझ पाया। जैन दर्शन वस्तुवादी एवं परिणामवादी है और इसलिए वह जड़-चेतन के मध्य वास्तविक सम्बन्ध स्वीकार करने
कर्म-सिद्धान्त
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