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वह संयम (संवर) के द्वारा नवीन कर्मों के बन्धन को रोककर तथा ज्ञान, ध्यान और तपस्या के द्वारा पुरातन कर्मों का क्षय कर परमश्रेय को प्राप्त करें। संदर्भ 1. तत्त्वार्थसूत्र ९/१ 2. सर्वदर्शनसंग्रह, पृ० ८० 3. स्थानांग, ५/२/४२७ 4. उत्तराध्ययन, २९/२६ 5. धम्मपद, ३६०-३६३ 6. द्रव्यसंग्रह, ३४ 7. समवायांग, ५/५ 8. स्थानांग, ८/३/५९८ 9. सूत्रकृतांग, १/८/१६ 10. दशैवकालिक, १०/१५ 11. संयुत्तनिकाय, ३४/२/५/५ 12. धम्मपद, ३६०-३६१ 13. वही, ३६२, तुलनीय दशवैकालिक १०/१५ 14. गीता, २/५८ 15. गीता, २/६०, २/६७, २/६८, २/६१ 16. दशवैकालिक, १/१ 17. पश्चिमी दर्शन (दीवानचन्द), पृ० १२१ 18. हिन्दुओं का जीवन-दर्शन, पृ० ६८ 19. पश्चिमी दर्शन (दीवानचंद्र), पृ० १६४ 20. उत्तराध्ययन ३०/५-९ 21. समयसार, ३८९ 22. उत्तराध्ययन, ३०/७-८, ३० 23. अंगुत्तरनिकाय, ३/७४ 24. (अ) उत्तराध्ययन, ९/४४ (ब) सूत्रकृतांग, १/८/२४ 25. छहढ़ाला, ४/५ 26. गीता, १८/६६ 27. गीता, १८/५१-५३
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जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त