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में ऋत के नियम को स्वीकार किया गया है, लेकिन उसकी विस्तृत व्याख्या उसमें उपलब्ध नहीं है। पूर्व युग में जिन विचारकों ने इस वैचित्र्यमय सृष्टि, वैयक्तिक विभिन्नताओं, व्यक्ति की विभिन्न सुखददुःखद अनुभूतियों तथा सद-असद् प्रवृत्तियों का कारण जानने का प्रयास किया था, उनमें से अधिकांश ने इस कारण की खोज बाह्य तथ्यों में की। उनके इन प्रयासों के फलस्वरूप विभिन्न धाराएँ उद्भुत हुईं। ४. कारण सम्बन्धी विभिन्न मान्यताएँ __ श्वेताश्वतरोपनिषद्, सूत्रकृतांग, अंगुत्तरनिकाय, महाभारत के शान्तिपर्व तथा गीता में इन विविध विचारधाराओं के सन्दर्भ उपलब्ध हैं। उनमें कुछ प्रमुख मान्यताएँ इस प्रकार हैं
१. कालवाद - समग्र जागतिक तथ्यों, वैयक्तिक विभिन्नताओं तथा व्यक्ति के सुख-दुःख एवं क्रियाकलापों का एकमात्र कारण काल है।
२. स्वभाववाद - जो भी घटित होता है या होगा, उसका आधार वस्तु का अपना स्वभाव है। स्वभाव का उल्लंघन नहीं किया जा सकता।
३. नियतिवाद - घटनाओं का घटित होना पूर्वनियत है और वे उसी रूप में घटित होती हैं। उन्हें कोई कभी भी अन्यथा नहीं कर सकता। जैसा होना होता है, वैसा ही होता है।
४. यदृच्छावाद - जगत की किसी भी घटना का कोई भी नियत हेतु नहीं है, उसका घटित होना मात्र एक संयोग है। इस प्रकार यह संयोग पर बल देता है तथा अहेतुवादी धारणा का प्रतिपादन करता है।
५. महाभूतवाद - यह भौतिकवादी धारणा है। इसके अनुसार पृथ्वी, अग्नि, वायु और पानी ये चारों महाभूत ही मूलभूत कारण हैं, सभी कुछ इनके विभिन्न संयोगों का परिणाम है।
६. प्रकृतिवाद - प्रकृतिवाद त्रिगुणात्मक प्रकृति को ही समग्र जागतिक विकास तथा मानवीय सुख-दुःख एवं बन्धन का कारण मानता है।
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जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त