________________
५. अशुभाचरण और ६. विवेकाभाव (विमूढ़ता ) । प्रथम पाँच से चारित्रमोह का और अन्तिम से दर्शनमोह का बन्ध होता है । कर्मग्रन्थ में दर्शनमोह और चारित्रमोह के बन्धन के कारण अलग-अलग बताये गये हैं । दर्शनमोह के कारण हैं- उन्मार्ग देशना, सन्मार्ग का अपलाप, धार्मिक सम्पत्ति का अपहरण और तीर्थंकर, मुनि, चैत्य ( जिन - प्रतिमाएँ) और धर्म-संघ के प्रतिकूल आचरण | चारित्रमोह कर्म के बन्धन के कारणों में कषाय, हास्य आदि तथा विषयों के अधीन होना प्रमुख है । 9 तत्त्वार्थसूत्र में सर्वज्ञ, श्रुत, संघ, धर्म और देव के अवर्णवाद ( निन्दा) को दर्शनमोह का तथा कषायजनित आत्म-परिणाम को चारित्रमोह का कारण माना गया है 150 समवायांगसूत्र में तीव्रतम मोहकर्म के बन्धन के तीस कारण बताये गये
१. जो किसी स प्राणी को पानी में डुबाकर मारता है । २. जो किसी त्रस प्राणी को तीव्र अशुभ अध्यवसाय से मस्तक को गीला चमड़ा बांधकर मारता है। ३. जो किसी त्रस प्राणी को मुँह बाँध कर मारता है । ४. जो किसी त्रस प्राणी को अग्नि के धुएँ से मारता है । ५. जो किसी त्रस प्राणी के मस्तक का छेदन करके मारता है । ६. जो किसी त्रस प्राणी को छल से मारकर हँसता है । ७. जो मायाचार करके तथा असत्य बोलकर अपना अनाचार छिपाता है। ८. जो अपने दुराचार को छिपाकर दूसरे पर कलंक लगाता है। ९. जो कलह बढ़ाने के लिए जानता हुआ मिश्र भाषा बोलता है । १०. जो पति-पत्नि में मतभेद पैदा करता है तथा उन्हें मार्मिक वचनों से झेंपा देता है। ११. जो स्त्री में आसक्त व्यक्ति अपने-आपको कुंवारा कहता है। १२. जो अत्यन्त कामुक व्यक्ति अपने आप को ब्रह्मचारी कहता है । १३. जो चापलूसी करके अपने स्वामी को ठगता है । १४. जो जिनकी कृपा से समृद्ध बना है वह ईर्ष्या से उनके ही कार्यों में विघ्न डालता है । १५. जो अपने उपकारी की हत्या करता है । १६. जो प्रसिद्ध पुरुष की हत्या करता है । १७. जो प्रमुख पुरुष की हत्या करता है । १८. जो संयमी को पथभ्रष्ट करता है । १९. जो महान् पुरुषों की निन्दा करता है। २०. जो न्यायमार्ग की निन्दा करता है । २१. जो आचार्य, उपाध्याय एवं गुरु कर्म- -बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया
[99]