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________________ 68 THE INDIAN ANTIQUARY. [MARCH, 1892. बहुरि ऐसे ही पूर्वश्रीमूलसह विर्षे प्रथम दूसरा स्वेतपही गच्छ भया ।। बहुरि ता के पीछे काष्ठसक भया । बहुरि ता के पीछे द्राविड गच्छ भया । वहुरि ता के पी यापुलीय गच्छ भया । (17) बहुरि इत्यादिक गच्छ पीछे केतक काल पीडै स्वेताम्बर भया । बहुरि यापनीय गच्छ, केकिपिच्छ, स्वेतवास, नि:पिच्छ, द्राविड, यह पञ्च सज जैनाभास कया है । जैन का सा चिहाभास दीसे है । सो या नै अपणी अपणी बुद्धि के अनुसार करि सिद्धान्ताँ का व्यभिचारवर्णन कह्या है। श्रीजिनेन्द्र का मार्ग . व्यभिचाररूप कीया। नदुक्तं नीतिसारे । लोक ।। कियत्यपि ततोऽतीते काले श्वेताम्बरोऽभवत् । द्राविडो यापनीयश्च केकीसङ्गश्च मानतः॥१॥ केकीपिच्छः श्वेतवासो द्राविडो यापुलीयकः। नि:पिच्छश्चेति पचैते जैनाभासाः प्रकीर्तिताः॥२॥ स्वस्वमत्यनुसारेण सिद्धान्तव्यभिचारणं। विरचय्य जिनेन्द्रस्य मार्ग निर्भेदयन्ति ते ॥३॥ ऐसे जानना ॥ (18) इहाँ कोई पूछे । पूर्व नन्दि-चन्द्र-कीत्ति-भूषण-आदि, नन्दिसद्ध बहुरि सेनसन बहुरि देवसङ्ग बहुरि सिंहसन आदिक ल्या, सो इनके आचार्य जुदे जुदे भए ? ता की मान्य कैसे है? या मैं परस्पर भेदभावरूपी मान्य है, कि एक मान्य है ? ।। ता का उत्तर । पूर्वोक्त गणगच्छारिक भए हैं, सो पर कै मुखाता भए है । या कै विष कोई भी तहाँ भेद नाँही है। और प्रव्रज्यादि कर्म के विर्षे भी समानता है। और जो पूर्वोक्त श्रीमूलसड के विष चतुःसङ्घ के भेद, आचार्यनि विषै जो भेदभाव करै है, सो सम्यकदर्शन ते रहित है, मिथ्यावृष्टि है, वहरि सो संसार के माँहि चिरकाल संचरै है । जा ते यह चतुःसङ्घ के विर्षे प्रतिमा के भेद, बहुरि प्रायश्चित्तादि कर्म का भेद, बहुरि आचार का भेद, बहुरि वाचनादि शास्त्रनि का भेद, कोई कै भी परस्पर जुश भेव नाँहि, सर्व एक ही है । या ते या मैं जे भेदभाव राखै है", सो सम्यकदर्शन ते रहित है', मिथ्यात्वी है , दीर्घसंसारी है । वहरि पूर्वोक्त चतु:सङ्ग सहित प्रतिष्ठित जि. नप्रतिमा, ता में और सन्देह नहीं करना ॥ या ते अन्य है, सो विपर्ययरूप है। भावार्थ । चतुःसज करि प्रतिष्ठित जो जिनविम्ब सो पूजनीक है । या ते अन्य कहिये स्वेताम्बरादिक कल्पित प्रतिमा है, सो विपर्ययरूप है। ( 19 ) तदुक्तं नीतिसारे ।। श्लोक ॥ गंणगच्छादयस्तेभ्यो जातास्ते परसौख्यदाः। न तत्र भेदः कोप्यस्ति प्रवज्यादिषु कर्मस ॥१॥ चतुःसजेनरो यस्तु कुरुते भेदभावनां। स सम्यग्दधनातीतः संसारे संचरत्यरं ॥२॥ म तत्र प्रतिमाभेदो न प्रायश्चित्तकर्मणः। माचारपाचनापयवाचनासु विशेषतः॥३॥ चतुःसन महितं जिनबिम्बं प्रतिष्ठितं । ममेनापरसीयं यतो न्यासविपर्ययः॥४॥ ( 20 ) ऐसे पूर्वोक्त प्रकार भद्रवाह भए । ता के पीछे और आचार्य अनुक्रम ते भए है, सो किश्चित् मात्र भद्रपाह से ले कर यों का वर्णन अनुक्रम से लिखिये है। विक्रम राजा दूं राज्यपदस्थ के दिन ते संवत् केवल के चैत्र एक १४ चतुर्दशी विने श्रीभद्रवाह भाचार्य भये । ता की जाति प्रामण । गृहस्थ वर्ष २४ चौवीस । दीक्षा वर्ष ३. तीस । पावर्ष २२ वाईस के उपरि मास १० दश दिन २७ सत्ताईस वहरि विरहदिन ३ । तिन का सर्वानुवर्ष छिहत्तर ७६ । पुनर्मास ११ ग्यारह ।। (21) वहरि ता के पीछे संवत् केवल छहवीस २६ का फाल्गुन शुक्ल १५ चतुर्दशी दिन मैं गुमगुप्ति नाम भाचार्य जाति परवार भये । सा का गृहस्थ वर्ष २२ वाईस का । बहुरि दीक्षावर्ष १४ चौदह । पहस्थवर्ष ९ नौ, मास ६ छह दिन २५ पचीस. विरह दिन ५ पाँच । या की सर्वायुवर्ष पैसठि ६५ मास सात ६५७ का जाननी ।। "MS. स्वेतवासः। 24 The reading of the text is not quito reliable here.
SR No.032513
Book TitleIndian Antiquary Vol 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRichard Carnac Temple
PublisherSwati Publications
Publication Year1984
Total Pages430
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size17 MB
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