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[ महामणि चिंतामणि
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करने के हेतु। उन्होंने यह देखा कि यह तो आकाश में उडकर ऊपर जा रहा है, यह गुरु सच्चा। यदि हम इसके शिष्य बन जाएं तो ऐसी शक्ति हम में भी प्रगट हो सकती है। ऐसी भावना रख करके ये बैठे रहे और आप ऊपर गये। ऊपर जो जिनालय है ऐसे आजकल उल्लेख विस्मृत हो गया है, इस लिए कुछ का कुछ है, मूल चीज़ अनुभवगम्य है।
वहाँ तीन चौवीसी के जिनालय हैं। उनमें वर्तमान चौवीसी के रूप में आठवें शिखर के ऊपर चौदह मंदिर हैं और बाकी सातवी मंजिल पर हैं। जिस में एक जिनालय में एक बिम्ब और चरण, इस तरह से रत्नमय बिम्ब रलमय कहीं मंदिर भी हैं। कहीं सुवर्णमय है इस प्रकार के हैं। वहाँ गणधर गौतम पधारे और वन्दना की खूब उल्लास के साथ। और मूल मंदिर के सामने ग्राउन्ड है उसमें एक वृक्ष है वह वृक्ष खूब छायादार, उसके नीचे आप रात्रि रहे हैं। रात्रि के समय में यह वज्रस्वामी का जीव उस समय तिर्यग्न देव था, वह वहाँ आया है उनको गणधर गौतम ने प्रतिबोध दिया. उनको आत्मा की पकड कराई। प्रतिबोध का मतलब है देह से भिन्न आत्मा को पकड और परिणाम स्वरूप वज्रस्वामी आगे चल कर छोटी वय में ही श्रुतपाठी बन गए हैं। तो यह उनको प्रतिबोध दिया है। यह गणधर गौतम की कृपा।
दूसरे दिन विधिवत् फिर वन्दना की भगवान की और वापस आये। नीचे उतर रहे थे तो वे सभी आपके चरणों में झुक गये १५०३ तापस और कहा कि आपकी शक्ति अमाप है,. हम पर कृपा करो और आपकी शरण दो! सभी को फिर इस जिनेश्वर मार्ग पर आरूढ किया, सभी को दीक्षित बनाया। दीक्षा दिक् यानी दिशा, दिशा जैसा हो जाना दीक्षा। वास्तव में जो हो जाना और और ज्यों का त्यों हो जाना यह है साधु दीक्षा। दीक्षित बन गये और कहा कि आप तो सभी तपस्वी हैं, क्या इच्छा है पारणा करने की? कि हाँ इच्छा है पारणा करने की। क्या इच्छा है आपको पारणे में भोजन करने की? तो परमान्न हो, फिर भोजन हो तो ऐसा खयाल आता है। अच्छी बात है। उस वक्त अगल-बगल में कोई वस्तियाँ होंगी।
गणधर गौतम बताया जाता है कि खीरपात्र लाये ओर अंगुष्ठ रखा और अक्षिणीय बन गया और सब को आहार कराया। १५०३ का पारणा हो गया पर वह खूटा नहीं है। अक्षीणमहानसी लब्धि । यहाँ एक यह प्रश्न उठता है कि ज्ञानी शक्तियों को स्फुरित नहीं करते। आप चार ज्ञान के मालिक हैं और यह घटना जो बताई जाती है उस में कहां तक सत्य है। ऐसा लगता है कि पूर्वपुण्य, पूर्वजन्मों में जो ऐसी भावना द्वारा आराधना की होगी और वह कर्मबीज इस प्रकार जमा हुए और कर्म का पाप रूप में भी उदय आता है तो भुगतना पड़ता है फल पुण्य रूप में भी, तो ऐसे ही लब्धि रूप में यह पुण्याई है और उसका उदय आता है। जब कोई ऐसा सुपात्र दान निमित्त हो तो ऐसी शक्तियां स्फुरित होती हैं। इस वक्त इच्छा नहीं होती। यह इच्छा तो तब तक रूप में भी अपना कर्मतंत्र काम करता है। और नई इच्छा से भी करें तो भी कर्मतंत्र काम करता है। पर नई इच्छा द्वारा नया कर्मबंध होता है और संतति बढती है। इस लिए परम कृपालु ने यह जो इशारा किया है उसका मतलब यही है। एकान्तिक निषेध नहीं किया पर एकान्तिक निषेध करें तो वास्तविक बात ठीक नहीं है। क्यों कि आपके जरिये भी किसी का समाधिमरण हुआ है उस वक्त भी उन शक्तियोंने काम किया है। ऐसा चरित्रचित्रण मौजूद है। इस लिए एकान्तिक रूप में सभी बातों का स्वीकार माना है। स्याद्वाद न्याय से गणधर गौतम