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श्री गुरु गौतमस्वामी ].
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इन्द्रभूति भगवान महावीर द्वारा गुप्त मनोभावों का उद्घाटन करते ही अचकचा गये—क्या सच महावीर सर्वज्ञ हैं ? नहीं तो कैसे वे मेरे गूढ़तम मनोभावों को यों बतला सकते थे? फिर भी अपनी वादविवाद विधि से भगवान महावीर से प्रश्नोत्तर किये। तीर्थंकर महावीर के युक्तिसंगत वचनों से इन्द्रभूति के मन की गाँठ खुल गयी, उनका संशय निर्मूल हो गया और ज्ञान पर गिरा हुआ पर्दा हट गया। उन्हें भगवान महावीर की सर्वज्ञता एवं वीतरागता पर अटूट विश्वास हो गया। वे भगवान के चरणों में हाथ जोड़ कर बोले : "प्रभो! मुझे अपना शिष्य बनाईये।" इन्द्रभूति के पश्चात् यज्ञमण्डप में उपस्थित अग्निभूति, वायुभूति आदि अन्य दस महापंडित एक एक करके अपने शिष्यों सहित भगवान महावीर के समवसरण में आये, वाद-विवाद किया और अंत में समाधान पाकर भगवान के शिष्य बन गये।
उसी अवसर पर रोजकुमारी चन्दनाजी ने अनेक राजकुमारियों आदि के साथ दीक्षा ग्रहण की।
वैशाख सुदि ११ को ही भगवान ने धर्मतीर्थ की स्थापना की। संघस्थापना के पश्चात् भगवान ने इन्द्रभूति आदि प्रमुख शिष्यों को सम्बोधित करके "त्रिपदी" का उपदेश किया; जिसे सूत्र रूप में प्राप्त कर गणधरों ने उसकी व्याख्या के रूप में द्वादशांगी की रचना की।
श्रमण संस्कृति का मूल स्वर था “समयाए समणो होई"-समता के आचरण से ही श्रमण कहलाता है। 'श्रमण' शब्द की व्याख्या भी इसी समत्व की भावना को लेकर की गई है—“सम मणई तेण सो समणो"-जिसका मन सम होता है वह श्रमण है। सामायिक का भी यही अर्थ है कि-जिसकी आत्मा संयम, नियम एवं तप में समाहित हो गयी. शांति को प्राप्त कर रही को वस्तुतः सामायिक होती है। भगवान महावीर के इस समताधर्म का आश्चर्यजनक प्रभाव इन्द्रभूति पर हुआ, और उन्होंने समस्त पूर्व आग्रहों एवं क्रियाकांडो को ऐसे त्याग दिया जैसे साप केचुली को त्याग देता है, और वे साधनामार्ग पर समर्पित हो गये। - आगमों में गौतम को “उग्गतवे घोरतवे" आदि विभूषणों से अलंकृत किया है। भगवतीसूत्र में टीकाकार अभयदेवसूरि ने उक्त शब्दों पर टीका करते हुए लिखा है, जिस तपश्चरण की आराधना सामान्य जन के लिए अत्यंत कठोर हो, यहाँ तक कि वे उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते, ऐसे तपश्चरण को उग्र तप कहा जाता है। उनके लिए "घोरवंभरचेरवाती" भी एक विशेषण आता है। वे घोर ब्रह्मचारी थे। उनके लिये एक विशेषण यह भी प्रयुक्त है-“उच्छुद सरीरे"--शरीर का त्याग करने वाला। इसका आशय यह है कि शरीर होते हुए भी शरीर के संस्कार, ममत्व एवं किसी प्रकार की आसक्ति उनमें नहीं थी। महावीर का यह संदेश “एगमप्पाणं संवेहाए धुणे कम्म सरीरगं" आत्मा को शरीर से पृथक् समझकर कर्म शरीर को धुन डालो। गौतम के जीवन में रम गया था और वे सतत देहमुक्त भाव में विचरण करते हुए आत्मा का चिंतन करते रहते थे। उनकी दृष्टि आत्मकेन्द्रित हो गई थी और शारीरिक संस्कार से मुक्त थी।
गणधर गौतम के जीवन में जितनी तपश्चरण की उत्कटता थी उतनी ही विनय, सरलता, मृदुता की सुकुमार पुष्पसम कोमलता भी थी। अब यहाँ उनके जीवन के विविध प्रसंगों की कुछ झाँकियाँ प्रस्तुत की जा रही हैं -
विनम्रता की मूर्ति- भगवान महावीर के प्रथम श्रावक आनंद ने जीवन के अंतिम समय में
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