________________
श्री गुरु गौतमस्वामी ]
[ ८०७
गौतम के जीवन का अद्वितीय रूप है, न सिर्फ श्रमण संस्कृति में अपितु सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति में भी।"
सम्पूर्ण आदर्श श्रमण कृत्यों का एक अद्भुत समावेश झलकता था गणधर गौतम के जीवन में। अन्य भारतीय महान विभूतियों की तरह उन्हों ने भी अपने विषय में कुछ नहीं कहा। यही विशेषता थी उनके विशाल व्यक्तित्व की । परन्तु यही कठिनाई सिद्ध हुई इतिहासकारों के लिए।
ब्राह्मणश्रमण संस्कृति का महासेतुबंध :
श्रमण एवं ब्राह्मण संस्कृतियों की गंभीर टकराहट के युग में भी गणधर गौतम समन्वय का एक महासेतुबंध सिद्ध हुए । उनकी विद्वत्ता की एक अमिट छाप उस समय व्यक्त हुई, जब श्रमण भगवान महावीर से चर्चा के मध्य अपनी शंकाओं का पूर्ण समाधान प्राप्त कर उन्होंने उसे ह्रदय से स्वीकार किया । अपने समय के ब्राह्मण समाज के एक उच्चतम विद्वान होते हुए भी उन के हृदय की यह समन्वयवृत्ति एक अनुकरणीय आदर्श है । 'इन्द्रभूति गौतम : एक अनुशीलन' के प्रारंभ में आशीर्वचन से यह उल्लेख उद्धृत करने योग्य है :
'पच्चास वर्ष पूर्व का यह महान व्यक्तित्व श्रमण-ब्राह्मण परम्परा के बीच सेतु बनकर आया, सांस्कृतिक मिलन, धार्मिक समन्वय एवं वैचारिक अनाग्रह का मार्ग प्रशस्त करने में सफल हुआ । संयम - धारण एवं संयमसाधना :
इस प्रसंग का विश्लेषण अन्य प्रकार से भी किया जा सकता है । इन्द्रभूति गौतम ने जीव के विषय में अपने मन की शंका का भगवान महावीर से पूर्ण समाधान प्राप्त कर लिया, वह भी वेद और वैदिक साहित्य के आधार पर। पूर्ण समाधान पाकर इन्द्रभूति ने इस ज्ञानकल्पतरु की शरण ग्रहण करनी चाही होगी । इस लिये उन्होंने प्रभु महावीर का शिष्यत्व ग्रहण कर उनके चरणों में रहना स्वीकार कर लिया । श्रमण भगवान महावीर द्वारा अपनी शंका का समाधान अपने ही साहित्य के आधार पर प्राप्त कर महावीर की महान उदारता की एक अमिट छाप उनके हृदय पर अंकित हो गई ।
इन्द्रभूति गौतम की उक्त भावना की पुष्टि गौतम के ही कथन से मिलती है जिसको सन्दर्भ भट्टारक सकलकीर्ति रचित वीर वर्धमान चरित्र से । - " गौतम कहने लगे, हे प्रभो ! आज का दिन मेरे लिये परम सौभाग्यशाली है। आज मेरा सकल जीवन सफल हो गया, क्यों कि आज मुझे आप जैसे महान जगतगुरु प्राप्त हुए हैं। विश्व में वस्तुतः पाप का बहुत बड़ा भंडार है। अपने जीवन का आज तक का इतना अमूल्य समय मैंने मिथ्यात्व का सेवन करते हुए ही खो दिया है।"
जिज्ञासुहृदय गौतम को जब जिज्ञासा का 'सर्वतो भावेन' समाधान मिल गया तो वे श्रमण भगवान महावीर को छोड़कर कैसे जा सकते थे ?
श्रमण भगवान महावीर के पास दीक्षा प्रसंग को ले कर " जैन धर्म के मौलिक इतिहास" भाग २ में सन्दर्भित दिगम्बर कवि रमधु रचित अप्रकाशित 'महावीर चरित्र (अपभ्रंश)' में इस