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[ महामणि चिंतामणि
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परंतु अरे! यह क्या? देवता यज्ञभूमि का त्याग कर आगे कहाँ जा रहे हैं ? इन्द्रभूति के आश्चर्य का पारावार न रहा। किसी के द्वारा जाना कि तीर्थंकर महावीर उद्यान में पधारे हैं, यह देवता उनके दर्शनार्थ जा रहे हैं। तो इन्द्रभूति की भौहें तन गईं। उनके अभिमान को करारी चोट लगी।
__ "अरे! मेरे यहाँ होते हुए भी देवता मुझे छोड़कर आगे बढ गये।" इन्द्रभूति का सारा अभिमान गुब्बारे की भांति फूट गया। अभिमान की प्रकृति तामसी होती है। उनका क्रोध सातवें आसमान पर चढ़ गया। क्रोध में लाल लाल हो इन्द्रभूति कहने लगे
_ "यह महावीर कितना मायावी है, जो इसने अपनी माया से देवताओं को भी ठग लिया है। मैं अभी उसकी माया का पर्दाफाश करता हूँ। मेरे सामने यह महावीर किस खेत की मूली है।"
क्रोध में धमधमाते हुए इन्द्रभूति गौतमने यज्ञभूमि छोड़कर महसेन वन की ओर कदम उठाए। पाँचसो शिष्य से घिरे इन्द्रभूति विचारों में डूब गए। “एक गगन में दो सूर्य नहीं हो सकते, एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं, वैसे ही मैं और वह दोनों सर्वज्ञ एक स्थान पर नहीं रह सकते हैं। मैं अभी जा कर उसे पराजित कर देता हूँ। सूर्य अंधकार दूर करने के लिए इन्तजार नहीं करता है।" इन्द्रभूति के विचारवर्तुल में अहंकार ऊभरता जा रहा था। “सर्वज्ञ का आडम्बर कर महावीरने मुझे रुष्ट किया है। इसे मैं बर्दाश्त नहीं करूँगा। तीन लोक को जीतने वाले मुझे इसे जीतने में क्या देर लगेगी। अभी मैं अपनी विद्या का जयजयकार करवाऊँगा।"
सच्चे ज्ञानी के अन्तर में अभिमान नहीं होता है। बड़े लोग स्वतः अपनी प्रशंसा नहीं करते। आम्र का पेड़ विकसित होने पर विनम्र बनता जाता है। ज्ञानी पुरुष कभी सिद्धि के मद में बहकते नहीं हैं। कीमती हीरा कभी अपने गुण का गुणगान नहीं करता है। कवि रहीम ने भी कहा है -
बड़ा बडाई न करे, बड़ा न बोले बोल ।
हीरा मुख से कब कहे, लाख हमारा मोल ॥ अभिमान की हारमाला से घिरे इन्द्रभूति गौतम ज्यों ही समवसरण के समीप पहुँचे, वहीं स्तंभित हो गए। समवसरण में इन्द्रों-देवेन्द्रों से परिवत भगवान महावीर को देखकर उनका सारा अभिमान गल गया। वे विचारने लगे
“अझे! कितना सुन्दर रूप! कौन यह ब्रह्मा है! विष्णु है! या शंकर है! इनके सामने मेरा क्या अस्तित्व है! यह तो सचमुच सर्वगुणसंपन्न सर्वज्ञ ही लग रहे हैं। अब मेरा क्या होगा? यदि मैं यहाँ नहीं आया होता तो ठीक रहता। अब तो लेने के देने पड़ गये।"
इन्द्रभूति किंकर्तव्य-विमूढ हो गये। उन्हें कुछ नहीं सुझने लगा। उनकी आँखे चौंधिया गईं, पैरों तले जमीन सरकने लगी। तभी समवसरणस्थ भगवान महावीर की मधुर वाणी इन्द्रभूति के कर्णपटों में गुंजी
"हे इन्द्रभूति गौतम! तुम कुशल हो ना? तुम्हारा स्वागत है।"