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श्री गुरु गौतमस्वामी ]
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गौतमस्वामि चार ज्ञान के धारक थे। फिर भी बड़े अप्रमत्त थे-वे अपने प्रत्येक संशय का निवारण प्रभुमुख से कराते थे। वस्तुतः इन प्रश्नों के पीछे एक रहस्य था। ज्ञानी गौतम को प्रश्न करने या समाधान प्राप्त करने की तनिक भी आवश्यकता नहीं थी। प्रश्न इस लिये करते थे कि इस प्रकार जिज्ञासाएं अनेकों के मानस में होती हैं, किन्तु प्रत्येक श्रोता प्रश्न पूछ भी नहीं पाता या प्रश्न करने का उसमें सामर्थ्य नहीं होता। अतः गौतम अपने माध्यम से श्रोतागणों के मनःस्थित शंकाओं का समाधान करने के लिये ही प्रश्नोत्तरों की परिपाटी चलाते ऐसी मेरी मान्यता है। गौतम गणधर का हम पर परम उपकार है-प्रभु से त्रिपदी को ग्रहण कर एक मुहूर्त मात्र में द्वादशांगी की रचना कर दी थी। वर्तमान में उपलब्ध समस्त आगमग्रंथ गुरु गौतमस्वामि की ही देन है। क्यों कि तीर्थंकर कारण बिना अर्थात् पूछे बिना बोलते नहीं हैं- परंतु गौतमस्वामि ने प्रभु से स्वर्ग, नरक, लोक, अलोक, भूत, भविष्य, तत्त्व, द्रव्य, संसार एवं मोक्ष सम्बन्धी हजारों प्रश्न पूछ कर समस्त जगत पर महान उपकार किया है। भगवती सूत्रमें ३६ हजार प्रश्नों का विशाल भंडार है जिसमें गुरुशिष्य के मधुर संवाद भरे पड़े हैं। विद्यमान आगमों में चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति एवं जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति आदि की रचना गौतम के प्रश्नों पर ही आधारित है। भगवती सूत्र एवं उपासक दशांग सूत्रमें विशिष्ट जीवन-चर्या दुष्कर साधना और बहुमुखी व्यक्तित्व-वर्णन इस प्रकार मिलता है।
श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति उग्र तपस्वी थे। दीप्त तपस्वी कर्मों को भस्मसात् करने में अग्नि के समान प्रदीप्त तप करने वाले थे। तप्त तपस्वी थे अर्थात् जिनकी देह पर तपश्चर्या की तीव्र झलक व्याप्त थी। वे कठोर एवं विपुल तप करने वाले थे। जो उराल प्रबल साधना में सशक्त थे। ज्ञान की अपेक्षा से चतुर्दश पूर्वधारी, मति श्रुत अवधि मनःपर्यव के धारक थे। सर्वाक्षर सन्निपात जैसी विविध २८ प्रकार की लब्धियों के वे धारक थे। महान तेजस्वी थे। वे भगवान महावीर से न अति दूर न अति समीप ऊर्ध्वजानु और अधोशिर होकर बैठते थे। ध्यान कोष्ठक अर्थात् सब ओर से मानसिक क्रियाओं का अवरोध कर अपने ध्यान को एक मात्र प्रभु के चरणारविन्द में केन्द्रित कर बैठते थे। बेले बेले निरन्तर तप का अनुष्ठान करते हुए संयमाराधना तथा तन्मूलक अन्यान्य तपश्चरणों के द्वारा अपनी आत्मा भावित-संस्कारित करते हुए विचरण करते थे। प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे प्रहर में देशना, ध्यान करते थे। तीसरे प्रहरमें पारणे के दिन अत्वरित, स्थिरता पूर्वक अनाकुल भाव से मुखवस्त्रिका (मुँहपत्ती), वस्त्र-पात्र का प्रमार्जन (पडिलेहण) कर प्रभु की अनुमति प्राप्त कर नगर या ग्राम में धनवान, निर्धन और मध्यम कुलों में क्रमागत एक भी घर छोड़े बिना भिक्षाचर्या के लिये जाते थे। अपेक्षित भिक्षा लेकर स्वस्थान पर आकर प्रभु को प्राप्त भिक्षा दिखा कर और अनुमति प्राप्त कर गोचरी करते थे।
इस प्रकार हम देखते हैं कि गौतमस्वामि अतिशय ज्ञानी हो कर भी परम गुरुभक्त और आदर्श शिष्य थे।
गणधर गुरु गौतमस्वामि में एक विशिष्ट अतिशय था। वे जिसको भी दीक्षा देते थे वह अवश्य केवली हो जाता था। एक बार पृष्ठचम्पा के राजा और युवराज शाल और महाशाल ने, भगवान की देशना सुन कर वैराग्यवासित होकर अपने भानजे गोगली को राज्य सौंपकर दीक्षा ग्रहण
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