________________
जैन-विभूतियाँ
241 विश्वविद्यालय के भाषा विभाग के प्रमुख प्रो. सत्यरंजन बनर्जी ने श्री नाहटाजी को इस काल का विद्यापति व पिंगलाचार्य बताया। पिछले 300 वर्षों में अपभ्रंश भाषा की प्रथम रचना कर आपने अपभ्रंश भाषा का एकमात्र कवि/विद्वान होने का गौरव प्राप्त किया।
श्री नाहटाजी के अथाह शब्दकोश खजाने में 'मूड' शब्द का अभाव था। किसी भी समय किसी भी विषय पर किसी की जिज्ञासा को शान्त करने की आप में अप्रतिम क्षमता थी।
छ: फुट के लम्बे चौड़े प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी श्री नाहटाजी के चेहरे का तेज किसी को भी प्रभावित करने में सक्षम था। ऊँची मारवाड़ी पगड़ी, धोती-कुर्ता, पगरखी का पहनावा जीवन पर्यन्त रखा। व्यापार के निमित्त राजस्थान छोड़ दिया पर राजस्थानी वेश, खानपान व भाषा नहीं छोड़ी।
__85 वर्ष की उम्र तक आपने निरन्तर भ्रमण किया। भ्रमण का मुख्य उद्देश्य शोध ही रहा, चाहे वो पुरातत्त्व शिलालेखों का हो, साहित्य का हो, मूर्तियों का हो, खुदाई में प्राप्त पुरावशेषों का हो, तीर्थों का हो या इतिहास का हो।
सन् 1997 में वे बीकानेर गये। इसी प्रवास में मन्दिर दर्शन करने जाते समय एक दुर्घटना में पाँव की हड्डी टूट गई, जिसके कारण उनका भ्रमण छूट गया। लेकिन शेष पाँच वर्षों में घर में रहकर भी आपने अध्ययन नहीं छोड़ा। सभी से पत्रों के माध्यम से सम्पर्क बनाए रखा। नये लेखन व प्रकाशन का कार्य अनवरत चलता रहा।
शेष पाँच वर्षों में शारीरिक व्याधि भी बढ़ी लेकिन उन्होंने उस तरफ से अपना ध्यान हटाए रखा। पारिवारिक सदस्यों के टोकने पर वे श्रीमद् राजचन्द्र की ये पंक्तियाँ सुनाते-"आत्मा ), नित्य छू देह थी भिन्न ,'' और इस पंक्ति को अंतिम दिनों में उन्हें कई बार गुनगुनाते हुए पाया गया। अपनी अथाह वेदना को अप्रकट ही रखते। देहावसान के दो दिन पूर्व ही उन्होंने कहा कि देह व आत्मा अलग हैं। स्विच ऑफ कर