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जैन-विभूतियाँ
स्नेही सेठ खूबचन्दजी से दस रुपए उधार लेकर वे मुम्बई गए एवं वहां उन्होंने सन् 1901 में 'जैन मित्र' का कार्यभार संभला । यहीं से प्रेमीजी ने जीवन की दिशा बदली। उन्हें इस मासिक पत्र के सम्पादन के साथ अन्यत्र कार्य भी करने पड़ते । परिश्रमी प्रेमीजी घबराये नहीं । यहाँ उन्होंने संस्कृत, मराठी एवं गुजराती भाषाओं का ज्ञानार्जन किया । यहीं रहते उन्होंने मंदिर के पुजारियों द्वारा दर्शन हेतु आने वाले सेठ श्रीमंतों के लिए की जाने वाली 'ठाकुर सुहाती' के विरोध में 'पुजारी स्तोत्र' नामक व्यंग्य लेख ‘जैन मित्र' के मुख पृष्ठ पर छाप डाला। इससे तिलमिलाए पुजारियों के रोष का कोप भाजन होना पड़ा। उनका सारा सामान सड़क पर फेंक दिया गया ।
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मुंबई में उनका परिचय महान साहित्य प्रेमी श्री पन्नालालजी बाकलीवाल से हुआ। उन्होंने आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचर्य ग्रहण कर सेवाव्रत स्वीकार किया था। जैन समाज में वे 'गुरुजी' नाम से विख्यात थे। भारत के इने-गिने विद्वानों में वो अग्रगण्य थे। बाकलीवाल जी प्रेमीजी की कार्यशैली एवं निष्ठा से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने अपने "जैन हितैषी' मासिक पत्रिका एवं "जैन ग्रंथ रत्नाकर" प्रकाशन कार्यालय की सम्पूर्ण जिम्मेदारी प्रेमीजी को सौंप दी। शनैः-शनैः प्रेमीजी ने "जैन हितैषी' पत्रिका के सम्पादन के साथ नये-नये ग्रंथों के संशोधन, सम्पादन व प्रकाशन का कार्यभार भी संभाल लिया। उनके सम्पादकत्व में "जैन हितैषी' अखिल भारतीय स्तर की उत्तम पत्रिका बन गई । इसी समय उनका परिचय जैन समाज के उदार चेता दानवीर सेठ माणिकचन्द जे. पी. से हुआ। सेठजी जैन विद्या, जैन शास्त्रों एवं जैन तीर्थों के सर्वतोमुखी विकास के लिए अनेक प्रकार से आर्थिक सहयोग देकर शोधकर्त्ताओं एवं लेखकों को प्रोत्साहित करते। वे प्रेम जी के ग्रंथों की 300-400 प्रतियाँ खरीदकर देश के विद्वानों, ग्रंथागारों, मन्दिरों एवं जैन हित्कारिणी संस्थाओं में मुफ्त बंटवाते । समाज की बहुमुखी सेवा में ही उन्होंने अपनी समस्त सम्पत्ति दान कर दी। प्रेमीजी ने उस अवदान से सेठजी के मरणोपरांत "माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रंथमाला'' की स्थापना की। इस श्रृंखला में उच्च कोटि के ग्रंथ अल्प मूल्य पर समाज