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[ 30 ] अभिषेक कलशों का वर्णन
अष्ट योजन गम्भीरर्मुखे योजन विस्तृतः। प्रारेभे काञ्चनैः कुम्भैः जन्माभिषवणोत्सवः ॥113॥
आदि पुराण । पर्व 13 8 योजन गहरे (64 मील), मुख पर एक योजन (8 मील) चौड़े और उदर में 4 योजन (32 मील) चौडे सुवर्णमय कलशों से भगवान के जन्माभिषेक का उत्सव प्रारम्भ किया गया था।
महामाना विरेजुस्ते सुराणामुघृता करैः।
कलशाः कल्मषोन्मेष मोषिणो विघ्नकाषिणः ॥1140 कालिमा अथवा पाप के विकास को चुराने वाले, विध्नों को दूर करने वाले • और देवों के द्वारा हाथों हाथ उठाये हुये वे बड़े भारी कलश बहुत ही सुशोभित हो रहे थे।
प्रादुरासन्नमो भागे स्वर्णकुम्भा धृतार्णसः ।
मुक्ताफलाञ्चित प्रीवाश्चन्दन द्रव चचिताः॥115॥ जिनके कण्ठ भाग अनेक प्रकार के मोतियों से शोभायमान हैं जो घिसे हुए चन्दन से चर्चित हो रहे हैं और जो जल से लबालब भरे हुए हैं ऐसे वे सुवर्ण कलश अनुक्रम से आकाश में प्रकट होने लगे।
तेषामन्योऽन्य हस्ताग्र संक्रान्तर्जलपूरितः।
कलशानशे व्योमहैमः सांध्य रिवाम्बुवैः ॥116॥ देवों के परस्पर एक के हाथ से दूसरे के हाथ में जाने वाले और जल से भरे हुए उन सुवर्णमय कलशों से आकाश ऐसा व्याप्त हो गया था मानो वह कुछ-कुछ लालिमायुक्त सन्ध्याकालीन बादलों से ही व्याप्त हो गया हो।
विनिर्ममे बहून् बाहून तानादित्सुः शताध्वरः।
स तैः सामरणर्बुजे भूषणाङ्ग इवाघ्रिपः ॥117॥ उन सब कलशों को हाथ में लेने की इच्छा से इन्द्र ने अपने विक्रिया-बल से अनेक भुजाएँ बना लीं। उस समय आभूषण सहित उन अनेक भुजाओं से वह इन्द्र ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो भूषणांग जाति का कल्पवृक्ष ही हो।
दोः सहस्रोद् धृतैः कुम्भैः रोक्मैर्मुक्ताफलाञ्चितः।
भेजे पुलोमजाजानिः भाजनाङ्ग ब्रुमोपमाम् ॥1180 अथवा वह इन्द्र एक साथ हजार भुजाओं द्वारा उठाये हुए और मोतियों से सुशोभित उन सुवर्णमय कलशों से ऐसा शोभायमान होता था मानो भाजनाङ्ग जाति का कल्पवृक्ष ही हो। अभिषेक
जयेति प्रथमां धारां सौधर्मेन्द्रो न्यपातयत् । तथा कलकलो भूयान् प्रचक्रे सुरकोटिभिः ॥119॥