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[ 16 ] किमेषा वैचुती दीप्तिः किमुत चुसवां चुतिः ।
इति व्योमचररक्षि क्षणमाशङ्कय साम्बरे ॥940 अथवा देव और विद्याधर उसे देखकर क्षणभर के लिए आशंका करते थे कि यह क्या आकाश में बिजली की कान्ति है अथवा देवों की प्रभा है ?
सेवा हिरण्यमयी वृष्टिर्धनेशेन निपातिता।
विमोहिरण्यगर्भत्वमिव बोधयितुं जगत् ॥95॥ कुबेर ने जो यह हिरण्य अर्थात् सुवर्ण की दृष्टि की थी वह ऐसी मालूम होती थी मानो जगत् को भगवान् की हिरण्यगर्भता बतलाने के लिये ही की हो। जिनके गर्भ रहते हुए हिरण्य सुवर्ण की वर्षा आदि हो वह हिरण्य गर्भ कहलाता है।
षष्मासानिति सापप्तत पुण्ये नाभिनुपालये।
स्वर्गावतरणाद् भर्तुः प्राक्तरां बुम्नसन्ततिः ॥96॥ इस प्रकार स्वामी वृषभदेव के स्वर्गावतरण से 6 महीने पहले से लेकर अतिशय पवित्र नाभिराज के घर पर रत्न और सुवर्ण की वर्षा हुई थी।
पश्चाच्च नवमासेषु वसुधारा तदा मता।
अहो महान् प्रभावोऽल्स्य तीर्थकृत्त्वस्य भाविनः ॥97॥ इस प्रकार गर्भावतरण से पीछे भी नौ महीने तक रत्न तथा सुवर्ण की वर्षा होती रही थी सो ठीक ही है क्योंकि होने वाले तीर्थंकर का आश्चर्यकारक बड़ा भारी प्रभाव होता है।
रत्नगर्भाधरा जाता हर्षगर्माः सुरोत्तमाः। क्षोभमा याज्जगद्गर्भो गर्भाधानोत्सवे विभोः ॥98॥
(अ0 12 पृ० 258) भगवान् के गर्भावतरण उत्सव के समय यह समस्त पृथ्वी रत्नों से व्याप्त हो गई थी; देव हर्षित हो गए थे और समस्त लोक क्षोभ को प्राप्त हो गया था ॥98॥
सिक्ताजलकर्णाङ्ग: मेहां रत्नरलंकृता। गर्भाधाने जगद्भर्तु गभिणीवामवद्गुरुः ॥99॥
__(अ0 12 पृ० 258) भगवान् के गर्भावतरण के समय यह पृथ्वी गंगा नदी के जल के कणों से सींची गयी थी तथा अनेक प्रकार के रत्नों से अलंकृत की गयी थी इसलिए वह भी किसी गर्भिणी स्त्री के समान भारी हो गयी थी॥99॥
रत्नः कीर्णा प्रसूनश्च सिक्ता गन्धाम्बुभिर्बभौ । तवास्नातानुलिप्तेव भूषिताङ्गी धराङ्गना ॥100॥
(अ0 12 पृ० 258) उस समय रत्न और फूलों से व्याप्त तथा सुगन्धित जल से सींची गई यह पृथ्वी रूपी स्त्री स्नान कर चन्दन का विलेपन लगाये और आभूषणों से सुसज्जित-सी जान पड़ती थी।