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(9) वैयावृत्य करना(गुणवद् दुःखोपनिपाते निरवद्येन विधिना तदपहरणं यावृत्त्यम्)
गुणी पुरुष के दुख आ पड़ने पर निर्दोष विधि से उसका दु:ख दूर करना वैयावृत्त्य है।
अरिहंत आचार्य बहुश्रुत और प्रवचन भक्ति(अर्हदाचार्येषु बहुश्रुतेषु प्रवचने च भाव विशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्तिः ।) (10) अरिहंत भक्ति
अरिहंत भगवान में भावों की विशुद्धि के साथ अनुराग, श्रद्धा, प्रेम, विश्वास, समर्पण भाव रखना अरिहंत भक्ति है।
(11) आचार्य भक्तिधर्माचार प्रति अनुराग की भावना रखना आचार्य भक्ति है। (12) बहुश्रुत भक्ति
जो ज्ञान, विज्ञान के धनी हैं इसी प्रकार निर्ग्रन्थ तपोधन उपाध्यायश्री (अध्यापक) के प्रति भावों की विशुद्धि के साथ अनुराग रखना बहुश्रुत भक्ति है ।
(13) प्रवचन भक्ति
सर्वज्ञ, वीतराग, हितोपदेशी भगवान के प्रकृष्ट वचनों के प्रति भावों की विशुद्धि के साथ अनुराग रखना प्रवचन भक्ति है ।
(14) आवश्यक क्रियाओं को न छोड़ना(षण्णामवश्यक क्रियाणां यथाकालंप्रवर्तनमावश्यकापरिहाणिः) यह आवश्यक क्रियाओं का यथा समय करना आवश्यक परिहाणि है । (15) मोक्ष मार्ग की प्रभावना(ज्ञानतपोदान जिनपूजा विधिना धर्मप्रकाशनं मार्गप्रभावना)
ज्ञान, तप, दान और जिनपूजा इनके द्वारा धर्म का प्रकाश करना मार्ग प्रभावना है।
(16) प्रवचनवात्सल्य
(वत्से धेनुवत्स धर्मणि स्नेहः प्रवचनवत्सलत्वम् । तान्येतानि षोडशकारणानि सम्यक् भाव्यमानानि व्यस्तानिसमस्तानि च तीर्थकर नामकर्मास्रव कारणानि प्रत्येतव्यानि)
जैसे गाय बछड़े पर स्नेह रखती है उसी प्रकार सामियों पर स्नेह रखना प्रवचनवत्सलत्व है। ये सब सोलह कारण हैं। यदि अलग-अलग इनका भले प्रकार चिन्तन किया जाता है तो भी ये तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव के कारण होते हैं
और समुदायरूप से सबका भले प्रकार चिन्तन किया जाता है तो भी ये तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव के कारण हैं।