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________________ [ 90 ] को शब्दायमान कर रहा था, उसके दोनों छोर तथा मध्य का अंतर मोतियों की मालाओं से युक्त था, उत्तम गंध से आकर्षित हो सब ओर मँडराते हुए भ्रमरों के समूह से उसकी कान्ति उल्लसित हो रही थी, उस आकाश में उसका चंदेवा भगवान् के मूर्तिक यश के समान दिखाई देता था, उस मण्डप के चारों कोनों में ऊँचे खड़े किये हुए खम्भों के समान सुशोभित, बड़े-बड़े मोतियों से निर्मित तथा बीच-बीच में मूंगाओं से खचित चार मालाएँ लटक रही थीं, उनसे वह अधिक सुशोभित हो रहा था । दया की मूर्ति, अहित का दमन करने वाले, स्वयं ईश एवं स्वयं देदीप्यमान भगवान् नेमि जिनेन्द्र उस मण्डप के मध्य में स्थित हो समस्त जीवों के हित के लिए विहार कर रहे थे ॥52-5611 सात-सात भव प्रदर्शक भामण्डल: पश्यन्त्यात्म भवान् सर्वे सप्त-सप्त परापरान् । यत्र तद्भासतेऽत्यक पश्चाद्धामण्डलं प्रभोः ॥57॥ उसी पुष्पमण्डप में भगवान् के पीछे सूर्य को पराजित करने वाला भामण्डल सुशोभित होता था जिसमें सब जीव अपने आगे-पीछे से सात-सात भव देखते हैं। मंगलमय की मंगल यात्रा के मंगल द्रवः त्रिलोकी वान्त साराभात्युपर्युपरि निर्मला। त्रिच्छत्री सा जिनेन्द्र श्रीस्त्रैलोक्येशित्व शंसिनीः॥58॥ भगवान् के सिर पर ऊपर-ऊपर अत्यन्त निर्मल तीन छत्र सुशोभित हो रहे थे जिनमें तीनों लोकों के द्वारा सार तत्त्व प्रकट किया गया था और उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो वह जिनेन्द्र भगवान् की लक्ष्मी तीन लोक के स्वामित्व को सूचित ही कर रही थी। चामराण्यमितो भान्ति सहस्राणि दमेश्वरम् । स्वयंवीज्यानि शैलेन्द्रं हंसा इव नभस्तले ॥59॥ भगवान् के चारों ओर अपने आप ढुलने वाले हजारों चमर ऐसे सुशोभित हो रहे थे जैसे आकाशतल में मेरु पर्वत के चारों ओर हंस सुशोभित होते हैं। ऋषयोऽनुवजन्तीशं स्वगिणः परिवृण्वते । प्रतीहारः पुरो याति वासवो वसुभिः सह ॥60॥ ऋषिगण भगवान् के पीछे-पीछे चल रहे थे, देव उन्हें घेरे हुए थे और इन्द्र प्रतिहार बनकर 8 वसुओं के साथ भगवान् के आगे-आगे चलता था। ततः केवललक्ष्मीतः प्रतिपद्या प्रकाशते। ___ साकं शच्या त्रिलोकोरुभूतिर्लक्ष्मीः समङ्गला ॥61॥ इन्द्र के आगे तीन लोक की उत्कृष्ट विभूति से युक्त लक्ष्मी नामक देवी, मंगलद्रव्य लिये शची देवी के साथ-साथ जा रही थी और वह केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी के प्रतिबिम्ब के समान जान पड़ती थी।
SR No.032481
Book TitleKranti Ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanak Nandi Upadhyay
PublisherVeena P Jain
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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