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[ 84 ] ततः प्रक्रमते शम्भुरारोढुं पद्मयानकम् ।
तत्क्षणं भूयते भूम्या हृष्टसंभ्रान्तयापि च ॥13॥ तदनन्तर उस पद्मयान पर भगवान् जिनेन्द्र आरूढ़ हुये थे और उस समय पृथिवी हर्ष से झूमती हुई-सी जान पड़ती थी। धर्म दिग्विजय प्रमाण की अद्भुत छठा
विजयी विहरत्येष विश्वेशो विश्वभूतये । धर्मचक्र पुरस्सारी त्रिलोकी तेन संपदा॥14॥ वर्धतां वर्धतां नित्यं निरीतिमरुतामिति ।
श्रूयतेऽत्यम्बुदध्वानः प्रमाणपटहध्वनिः ॥15॥ उस समय मेघों के शब्द को पराजित करने वाला देव-दुन्दुभियों का यह प्रयाणकालिक शब्द सुनाई पड़ रहा था कि धर्मचक्र को आगे-आगे चलाने वाले ये जगत् के स्वामी विजयी भगवान् सब जीवों के वैभव के लिये विहार कर रहे हैं। इनके इस विहार से तीन लोक के जीव सम्पत्ति से वृद्धि को प्राप्त हों अर्थात् सबकी सम्पदा वृद्धिगत हो, और सब अतिवृष्टि आदि ईतियों से रहित हों।
वीणावेणु मृदङ्गोरुमल्लरीशङ्ख काहलैः ।
तूर्यमङ्गलघोऽपि पयोधिमधिगर्जति ॥16॥ उस समय वीणा, बाँसुरी, मृदंग, विशाल झालर, शंख और काहल के शब्द से युक्त तुरही का मंगलमय शब्द भी समुद्र की गर्जना को तिरस्कृत कर रहा था।
संकथाक्रोशगीतावृहासैः कलकलोत्तरः ।
धावापृथिव्यौ प्राप्नोति प्रास्थानिक महारवः ॥17॥ प्रस्थान काल में होने वाला बहुत भारी शब्द, उत्तम कथा, चिल्लाहट, गीत, अट्टहास तथा अन्य कल-कल शब्दों से आकाश और पृथिवी के अन्तराल को व्याप्त कर रहा था।
वल्गु गायन्ति किन्नर्यो नृत्यन्त्यप्सरसो दिवि । स्पृशन्त्यातोद्यमानर्ता गन्धर्वादय इत्यपि ॥18॥ स्तुवन्ति मङ्गलस्तोत्रैर्जय मङ्गल पूर्वकैः।।
तत्र तत्र सतां वन्द्यं वन्दिनो नृसुरासुराः ॥19॥ आकाश में किन्नरियाँ मनोहर गान गाती थीं, अप्सरायें नृत्य करती थीं, झूमते हुए गन्धर्व आदि देव तबला बजा रहे थे और नमस्कार करते हुये मनुष्य, सुर तथा असुर, सज्जनों के द्वारा वन्दनीय भगवान् को नमस्कार करते हुए जयजय की मंगलध्वनि पूर्वक मंगलमय स्तोत्रों से जहाँ-तहाँ उनकी स्तुति कर रहे थे।18-19॥