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• जिसके दिल में श्री नवकार, उसे करेगा क्या संसार ?
सड़ने से बचाता है। उसी प्रकार जिस मन में अचिंत्य शक्तिशाली अरिहंत परमात्मा का वास होता है, उस मन में दुष्ट वृत्तियों की सड़न उनके साथ कैसे रह सकती है? अर्थात् नवकार आते ही जीवन शुद्ध बनता ही है। मोह का ह्रास होकर, नवकार के सच्चे साधक के हृदय में तप, नियम और संयम क्रमशः खिलते हैं। तप, नियम और संयम की वृद्धि और आत्मभाव की जागृति यह नवकार की साधना का नांपदण्ड है।
अपने जीवन की लगाम नवकार को सौंप देनें वाले को नवकार स्वयं सारथी बनकर, उसे तप, नियम और संयम के रथ में बैठाकर बीच में आती सभी बाधाओं को दूरकर, यात्रा की सुविधा भी उपलब्ध करवाकर सुखपूर्वक मुक्तिपुरी में पहुंचाता है। जगत के सभी जीव, नवकार रूपी कुशल और समर्थ सारथी को अपनाकर शीघ्र शिवपुरी में पहुंचें, यही मंगल कामना ।
( 1 )
किं एस महारयणं? किं वा चिंतामणिव्व नवकारो ? किं कप्पदुमसरिसो ? नहु नहु, ताणं पि अहिययरो ।।
लघु नमस्कार फल स्तोत्र, गाथा
(2) किं वन्निएण बहुणा ? तं नत्थि जयम्मि जं किर न सक्को । काउं एस जियाणं, भत्तिपत्तो नमुक्कारो ।।
(3)
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श्री वृद्ध नमस्कारफल स्तोत्र, गाथा 92 तव - नियम - संजमरहो, पञ्चमुक्कार सारहिपठत्तो । नाणतुरंगम जुत्तो, नेइ नरं निव्वुइनयरं । ।
श्री वृद्ध नमस्कारफल स्तोत्र, गाथा 100
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( कई बार रोगादि बाह्य विघ्न न टले इसी में साधक का हित हो तो नवकार से यह नहीं टलते हैं, इससे साधक को ये नहीं समझ लेना चाहिये कि उसकी साधना निष्फल जा रही है। वाचकों के मन में प्रश्न उठा होगा कि रोगादि आपत्ति न टले इसमें किस प्रकार हित हो सकता